एपिसोड 6 — “समंदर पार का सपना”
1913 की सर्दियों में, बंबई के बंदरगाह पर एक स्टीमर खड़ा था—लंबा, ऊँचा, और अपनी धातु की चमक में गर्व से लहरों को चीरने को तैयार। भीमराव, हाथ में छोटा-सा सूटकेस, वहीं खड़े थे। उनके साथ बरौडा सरकार के कुछ अधिकारी और उनके पिता रामजी मालोजी भी थे।
पिता ने धीरे से कहा—
“बेटा, ये सिर्फ तेरी पढ़ाई की यात्रा नहीं, तेरे समाज की यात्रा है। वहाँ जाकर जो सीख, वो लौटकर सबको देना।”
भीमराव ने प्रणाम किया, और स्टीमर की सीढ़ियाँ चढ़ गए।
समंदर की पहली रात
जहाज़ के डेक पर खड़े होकर उन्होंने पहली बार असीम समंदर देखा। लहरें अनंत तक फैली थीं—जैसे कोई बंधन न हो।
उनके मन में आया—काश इंसान के जीवन में भी ऐसे ही कोई बंधन न हों।
यात्रा लंबी थी—अरब सागर से होते हुए स्वेज नहर, फिर भूमध्यसागर, और आखिर में अटलांटिक की ठंडी हवाएँ। कई यात्री उनसे बातचीत करने आते, और जब वे कहते कि वे “भारत के महार समुदाय” से हैं, तो अधिकतर विदेशी कुछ समझ ही नहीं पाते।
यह पहली बार था जब उन्हें महसूस हुआ—जात का बंधन सिर्फ उनके देश में है, दुनिया के और हिस्सों में नहीं।
अमेरिका में कदम
कई हफ्तों की यात्रा के बाद, उनका जहाज़ न्यूयॉर्क के बंदरगाह पहुँचा। गगनचुंबी इमारतें, चौड़ी सड़कें, और हर तरफ भागते लोग—यह दृश्य उन्होंने सिर्फ तस्वीरों में देखा था।
उनका दाखिला Columbia University में हुआ, जहाँ वे राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र पढ़ने वाले थे।
पहले दिन, कक्षा में प्रोफ़ेसर जॉन डेवी ने प्रवेश करते ही कहा—
“Here, every student is equal.”
(“यहाँ, हर छात्र बराबर है।”)
ये शब्द भीमराव के कानों में संगीत की तरह गूँजे। यहाँ न कोई उन्हें अलग बरामदे में बैठने को कह रहा था, न अलग बर्तन दे रहा था। वे पहली बार उस माहौल में साँस ले रहे थे जहाँ इंसान की पहचान उसके विचार और मेहनत से होती थी।
नए दोस्त और नई सोच
कोलंबिया में उन्होंने कई देशों से आए छात्रों से दोस्ती की—अफ्रीका, यूरोप, चीन, जापान से आए लोग। एक दिन, एक अफ्रीकी छात्र ने उनसे कहा—
“हमारे देश में भी गोरे लोग हमें कमतर समझते हैं। लेकिन यहाँ हम सब बराबर हैं।”
भीमराव ने महसूस किया कि भेदभाव की जड़ें अलग-अलग जगहों पर अलग रूप में हैं, लेकिन दर्द एक जैसा है।
ज्ञान की प्यास
भीमराव दिन-रात पढ़ाई में डूबे रहते। वे न सिर्फ पाठ्यक्रम की किताबें, बल्कि विश्व इतिहास, संविधान, और सामाजिक आंदोलनों पर भी पढ़ते।
उन्होंने प्रोफेसर जॉन डेवी से गहरा प्रभाव लिया—जो लोकतंत्र और समानता के प्रबल समर्थक थे।
डेवी ने एक दिन उनसे कहा—
“Bhim, knowledge is not just for personal gain; it’s for transforming society.”
(“भीम, ज्ञान सिर्फ अपने लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज को बदलने के लिए है।”)
यह वाक्य उनके जीवन का मंत्र बन गया।
पहली उपलब्धि
1915 में, उन्होंने अपनी M.A. in Economics पूरी की—वह भी उत्कृष्ट अंकों के साथ। इसके बाद उन्होंने Ph.D. की ओर कदम बढ़ाया। उनका शोध “Ancient Indian Commerce” पर था, जिसमें उन्होंने प्राचीन भारत की आर्थिक व्यवस्था का गहन अध्ययन किया।
शोध करते हुए उन्हें बार-बार महसूस होता—हमारा अतीत महान था, लेकिन वर्तमान में हम अज्ञान और भेदभाव की जंजीरों में जकड़े हैं।
भारत की याद
अमेरिका की स्वतंत्र हवा में रहते हुए भी, उनका मन अक्सर सतारा के बरामदे, मुंबई के अलग बर्तन, और स्टेशन के पानी के मटके में अटका रहता।
वे रात को कमरे में अकेले बैठकर सोचते—जब मैं लौटूँगा, तो यह सब खत्म करने की शुरुआत करूँगा।
अगला पड़ाव — लंदन
अपनी M.A. और Ph.D. के बाद, बरौडा सरकार ने उन्हें एक और मौका दिया—लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स और ग्रेज़ इन (Gray’s Inn) में दाखिला, ताकि वे कानून की पढ़ाई कर सकें।
1916 में, वे अटलांटिक पार करके इंग्लैंड पहुँचे। लंदन की ठंडी हवा, थेम्स नदी का किनारा, और हर जगह फैली ऐतिहासिक इमारतें—यह सब उन्हें मंत्रमुग्ध कर देता।
अब उनका लक्ष्य साफ था—कानून और संविधान का गहरा ज्ञान लेकर लौटना, ताकि वे अपने लोगों के लिए न्याय की लड़ाई लड़ सकें।