कर्म नहीं, अंतर
लेखक राज फुलवरे
पुराने समय की बात है। हरे-भरे खेतों, मिट्टी की सोंधी खुशबू और शांत वातावरण से भरा एक छोटा-सा गाँव था— अमलपुर। गाँव बहुत बड़ा नहीं था, पर वहाँ के लोग सरल हृदय, धार्मिक और परंपराओं से जुड़े हुए थे। गाँव के केंद्र में शीतल नदी के किनारे एक प्राचीन शिव-मंदिर था। कहते हैं कि वह मंदिर सैकड़ों साल पुराना था, जिसकी दीवारों पर समय की खरोंचें तो थीं, पर भक्ति का रंग आज भी ताज़ा था।
यही मंदिर गाँव की आत्मा था, और इस मंदिर की सेवा में दो मित्र वर्षो से लगे थे— सत्यनारायण और हरिदत्त। दोनों एक ही मोहल्ले में रहते, साथ खेले बड़े हुए, पर मन और सोच में बड़ा अंतर था जिसे गाँव वाले दूर से समझ नहीं पाते थे।
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सत्यनारायण
ऊँचे कद, साफ कपड़े, और चेहरे पर हमेशा एक चमक लिए सत्यनारायण दिखने में आकर्षक था। उसका स्वभाव बोलचाल में अच्छा था, पर अंदर कहीं नाम, प्रशंसा और प्रतिष्ठा पाने की आग जलती रहती।
वह सुबह मंदिर आता, घंटी बजाते हुए जोर से कहता—
"पुजारी जी! देखिए, मैं आज फिर सबसे पहले आ गया हूँ!"
कभी भक्तों के सामने हाथ जोड़ते हुए बताता—
"मैं ही रोज़ मूर्ति साफ करता हूँ, मुझे बहुत भक्ति है भगवान से।"
लोग उसकी प्रशंसा करते—
"सत्यनारायण कितना पुण्य काम करता है!"
वह मुस्कुराता और मन में सोचता, "लोग मुझे याद रखेंगे। गाँव का सबसे धार्मिक व्यक्ति मैं ही हूँ।"
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हरिदत्त
दूसरी ओर हरिदत्त, साधारण धोती-कुर्ता, शांत आंखें, विनम्र स्वभाव। वह बिना कहे, बिना शोर सेवा करता।
सुबह मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए धीरे से कहता—
"हे प्रभु, मुझे आज भी आपके चरणों में सेवा का अवसर देना।"
मूर्ति धोते समय उसकी उंगलियों में जैसे भक्ति बस जाती।
फूल चढ़ाते समय आंखें बंद कर कहता—
"मेरी सेवा में दिखावा न हो प्रभु, बस आप स्वीकार कर लीजिए।"
प्रसाद बाँटते हुए हर बच्चे के सिर पर हाथ रखता,
"बेटा भगवान तुम्हें खुश रखे।"
बुज़ुर्ग आएं तो झट से आगे बढ़कर—
"दादी, धीरे उतरिए, मैं हाथ पकड़ लेता हूँ।"
उसकी सेवा में प्रेम था, न स्वार्थ।
गाँव वाले अक्सर कहते—
"हरिदत्त कम बोलता है, पर दिल से करता है काम।"
पर लोग तुलना नहीं करते थे। दोनों की सेवा एक-सी दिखती थी। फर्क भीतर था, जिसे देखना आँखों का नहीं, हृदय का काम है।
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मंदिर का जीवन, उनका दैनिक क्रम
सुबह सूरज की पहली किरण जब मंदिर के कुंड की लहरों पर पड़ती, तो दोनों मित्र मंदिर पहुँच चुके होते।
सत्यनारायण झाड़ू उठाकर साफ करते हुए सब को दिखाता—
"देखो भाई! आज मंदिर कितना चमक रहा है। ये सब मेरी मेहनत है।"
हरिदत्त चुपचाप दीपक में घी भरता,
"सत्य, थोरा-सा उधर भी साफ कर दो, वहाँ फूल गिरे हैं।"
सत्यनारायण माथा खींचते हुए—
"सब मैं ही करूँ? तुम भी तो कर सकते हो!"
हरिदत्त मुस्कुराकर खुद ही वहाँ जाकर सफाई कर देता। उसके लिए तर्क से ज़्यादा शांति जरूरी थी।
मंदिर के पुजारी गोपाल शास्त्री वृद्ध थे, सफेद दाढ़ी, शांत चेहरा। वे दोनों को स्नेह से देखते, पर दिल से हरिदत्त की निस्वार्थ भावना को जानते थे। पर बोले कभी नहीं।
"समय आने दो, हर दिल का सच खुद सामने आता है।"
वे अक्सर मन ही मन कहते।
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गाँव में तूफान आने की भूमिका
एक दिन मौसम बदला। बादल घिर आए। हवा में अजीब-सी बेचैनी थी। पक्षी पेड़ों पर जल्द लौट आए, जैसे प्रकृति किसी बड़ी घटना की पूर्वसूचना दे रही हो। शाम तक आसमान काला हो गया। बिजली कड़कने लगी। गाँव वाले बोले—
"ऐसा तूफान वर्षों में नहीं देखा!"
रात जैसे-जैसे गहरी हुई, तूफान ने अपना रौद्र रूप दिखाना शुरू किया।
मिट्टी की झोपड़ियाँ हिलने लगीं, पेड़ टूटकर गिरने लगे। नदी उफान पर थी।
मंदिर के पीछे पुराना लकड़ी का पुल जो दूसरे हिस्से में बसे परिवारों को गाँव से जोड़ता था, पानी के दबाव से चरमराने लगा।
लोग घबराए, बच्चे रोने लगे, बूढ़े भगवान को पुकारने लगे—
"शंकर! रक्षा करो!"
बाढ़ के उस पार 25 लोग फँसे थे, जिनमें छोटे बच्चे, महिलाएँ और बूढ़े शामिल थे। अगर पुल टूट जाता तो उन्हें बचाना असंभव हो जाता।
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दो मित्र मैदान में
खबर फैली तो दोनों मित्र मौके पर पहुँचे।
सत्यनारायण ने पहला काम किया—माइक और लाउडस्पीकर उठाया।
"गाँव वालों सुनो! मैं सत्यनारायण, मंदिर सेवक! मैं अब इस पुल की मरम्मत करूँगा! सब मेरा साथ दो!"
लोग उसकी बात सुनने लगे।
वह भीड़ के बीच खड़ा गर्व से बोला—
"देखो कैसे मैं पुल बचाता हूँ, भगवान के लिए सेवा!"
और भीड़ ताली बजाने लगी।
पर इस वक्त आवश्यकता ताली की नहीं, गति और योजना की थी।
उधर हरिदत्त चुपचाप घर-घर दौड़ रहा था।
"रस्सी कहाँ है? बाँस? लकड़ी? कपड़े के पट्टे?"
लोग पूछते—
"हरिदत्त क्या कर रहे हो?"
वह बस इतना कहता—
"लोगों को बचाना है, समय कम है।"
उसने पाँच रस्सियाँ जुटाईं, बाँस लिए, टाट की बोरी ली, खुद कंधे पर लादकर नदी किनारे पहुँचा।
सत्यनारायण भी वहीं था, भीड़ के बीच खड़ा।
"सब मेरा video बनाओ! बाद में गाँव सभा में दिखाएँगे!"
किसी ने मोबाइल निकाला।
हरिदत्त ने उसकी ओर देखा, कुछ नहीं बोला।
बस चप्पल उतारी, नदी में उतर गया।
बर्फ जैसा ठंडा पानी, तेज धारा, बारिश की धारें उसे काटती-सी जा रही थीं।
पर उसके मन में एक आवाज थी—
"कर्म नाम के लिए नहीं, प्राण बचाने के लिए।"
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मदद का असली रूप
हरिदत्त ने बाँस नदी में गाड़ा, रस्सी बाँधी, फिर दूसरी ओर फँसे लोगों को आवाज दी—
"डरो मत, एक-एक करके आओ! रस्सी पकड़े रहना!"
पहले बच्चों को बुलाया।
एक बच्चा रोता हुआ—
"भैया… मुझे डर लग रहा है…"
हरिदत्त ने मुस्कुराकर कहा—
"डर मत बेटा, भगवान साथ हैं। मेरा हाथ पकड़ो, धीरे-धीरे आओ।"
वह उसे अपनी पीठ पर बैठाकर नदी पार करवा लाया।
फिर एक बूढ़ी माँ।
काँपते हाथ, थरथराते कदम।
"बेटा, मैं नहीं चल पाऊँगी… बह जाऊँगी…"
हरिदत्त ने तसल्ली दी—
"आप मेरी माँ जैसी हैं। जब तक मैं हूँ, कुछ नहीं होगा।"
उन्हें बाँहों में थामा, धीरे-धीरे पानी चीरकर आगे बढ़ा।
धारा तेज हो रही थी, पर उसका विश्वास उससे अधिक मजबूत।
दूसरी ओर सत्यनारायण भी नदी किनारे खड़ा था, पर हाथ से कुछ नहीं कर रहा था।
ब्लाउडस्पीकर पकड़े घोषणा कर रहा था—
"लोगों को हिम्मत देनी चाहिए, ये भी सेवा है!"
भीड़ में से एक युवक बोला—
"भैया, बातों से ज्यादा काम चाहिए!"
सत्यनारायण नाराज़ होकर बोला—
"तुम लोग समझते नहीं! पहले व्यवस्था तो बनानी होगी!"
पर व्यवस्था बनाते-बनाते समय निकल रहा था…
और जीवन पानी में डूबता जा रहा था।
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हरिदत्त की जद्दोजहद
पानी अब कमर से छाती तक पहुँच गया था।
मूसलाधार वर्षा, बिजली की चमक, गर्जना—जैसे प्रकृति परीक्षा ले रही हो।
हरिदत्त का शरीर कांप रहा था, पर मन अडिग।
"प्रभु, शक्ति देना… इन सबकी रक्षा करना।"
एक-एक कर सभी 25 लोग पार हो गए।
आखिरी बच्चा पानी में फिसल गया—
"बचाओ!"
हरिदत्त बिना सोचे उसकी ओर कूदा।
धारा ने उसे बहाने की कोशिश की।
भीड़ चिल्लाई—
"हरिदत्त डूब जाएगा!"
पर उसने बच्चे को पकड़ा, उसे सीने से चिपकाकर रस्सी पकड़ी और किसी तरह किनारे पहुँचा।
लोग भागकर आए, बच्चे को गोद में लिया।
हरिदत्त घुटनों पर बैठ गया, सांस फूल रही थी, शरीर थका हुआ।
पर आँखों में संतोष—
"सब सुरक्षित हैं…"
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सत्यनारायण का मौन
सत्यनारायण दूर खड़ा सब देख रहा था।
ताली, भीड़, वीडियो—कुछ भी हरिदत्त के कर्म के सामने मायने नहीं रख रहा था।
लोग दोनों की सेवा की तुलना करने लगे, पर इस बार स्पष्ट था कि किसके कर्म में प्रेम था और किसमें दिखावा।
कोई सत्यनारायण के पास नहीं गया।
सब हरिदत्त के चरणों में बैठ गए—
"तुमने हमारे बच्चों को बचा लिया!"
"भगवान ने तुम्हारे हाथों चमत्कार किया!"
सत्यनारायण के मन में पहली बार टीस उठी।
"मैंने भी तो सेवा की, फिर लोग मुझे क्यों नहीं सराहते?"
पर भीतर एक आवाज आई—
"तुमने सेवा नाम के लिए की थी, उसने मन के लिए।"
पुजारी आगे आए।
भीगे कपड़ों में खड़े सत्यनारायण के कंधे पर हाथ रखा और कोमल स्वर में बोले—
"सत्य, आज तुमने मंदिर की सेवा की पर लोगों को बचाने में मन नहीं लगाया। यह सब देखो—कर्म दोनों ने किया, पर अंतर भावना में था।
भगवान कर्म नहीं, कर्म के पीछे की नीयत देखते हैं।"
सत्यनारायण की आँखें भर आईं।
वह धीरे से हरिदत्त के पास गया।
काँपती आवाज में बोला—
"मित्र… आज मैंने जाना कि मैं भक्ति के नाम पर अहंकार ढो रहा था। तुमने मुझे सिखाया कि पूजा फूलों से नहीं, हृदय से होती है।"
हरिदत्त मुस्कुराया—
"सत्य, हम दोनों भगवान की सेवा करते हैं। फर्क इतना था कि तुम चाहते थे लोग देखे, और मैं चाहता था भगवान देख लें।"
सत्यनारायण ने हाथ जोड़कर कहा—
"मुझे माफ कर दो। आज से मैं दिखावे की भक्ति छोड़कर सच्चे मन से सेवा करूँगा।"
हरिदत्त ने उसे गले लगा लिया।
और दोनों की आँखे नम थीं—पर उन आँसुओं में पश्चाताप और अपनापन था।
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उसके बाद…
गाँव में तूफान थम गया, पर उस रात मंदिर के बाहर बैठकर जलती दीपक की लौ में एक नयी सीख चमक रही थी।
अगले दिन से दोनों मंदिर में साथ काम करने लगे।
अब सत्यनारायण जोर से नहीं बोलता था,
कभी यह नहीं कहता "लोग देखो!"
बल्कि हरिदत्त की तरह सेवा चुपचाप करने लगा।
भक्त देखते—
"सत्यनारायण बदल गया है।"
और पुजारी मुस्कुराकर कहते—
"जब भक्ति में अहंकार पिघल जाता है, तब सेवा पूजा बन जाती है।"
आज भी अमलपुर गाँव में यह कहानी सुनाई जाती है—
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**"सच का मूल्य कर्म से नहीं, अंतर से तय होता है।
हाथ से किया काम शरीर का होता है,
पर मन से किया काम पूजा बन जाता है।"**