बाजार 17 वा धारावाहिक......
देव चुप था। रानी उसके करीब बैठी थी। मुंशी बाबा ने नाश्ते मे हलका फ्रेश खाना बनाया था... जिसमे सूप था। बेबसी का मारा देव कुछ बोल नहीं पा रहा था। रानी ने कहा था, " देव अगर तुम मुझे प्यार करते हो, तो शराब कयो नहीं छोड़ सकते, रीजन कया हैं-----" रानी के सिर की शपथ खा चूका था। देव ने लकड़ी के चमच से सूप पिया था। और दवाई की डोज़ भी लीं थी। देव सोच रहा था, कि मैं इतना उसके करीब कैसे हो गया। शायद यही मंजूर होगा रब को।
" तुम अगली फ़िल्म कयो साइन नहीं करते। "
रानी ने फिर रुक कर कहा " लोग तुम्हे देव आज भी चाहते हैं ---" देव सिर्फ मुस्करा पड़ा था। " जानता हूँ, रानी ----- लोग परछाई के पीछे लगे हैं... हक़ीक़त से कोसो दूर होती हैं ये फिल्मे। " रानी चुप सा कर गयी। " आख़र तुम कलाकार को ये कह कर कयो मार रहे हो। " देव ने सोचते हुए जोर देकर कहा, " फ़िल्म अगर बनानी ही हैं तो कयो न हम कुमुदनी के उपन्यास के प्लाट बना कर बनाये। " रानी चुप हो गयी। उसने सोचा नहीं था कि आज भी लिली उसके दिमाग़ मे बैठी हुई, कुछ करने को उतारू हैं। " रानी ने कहा, " कौन सी फ़िल्म, उसकी स्टोरी पर बना ने का दम रखते हो... बताओ मुझे भी। "
अगले ही पल ---------
एक पुस्तक जो लिली ने आपने हाथ से लिखी थी मेहनत करके.. वो रानी के आगे रख दी थी।
" ओह ये पुस्तक हैं... देव " रानी ने उसे खोला वो हिंदी मे थी। खूबसूरत ढंग से लिखी हुई। पुस्तक का नाम था " बजारू औरत --- जिसका नाम ही इतना स्ट्रांग था तो लेखनी कया होंगी। "
"देव उस उपन्यास को लोगों तक लाना चाहता था, जैसे तैसे भी " रानी देख रही थी.... देव को उसने कहा था, मुझे एक रात पढ़ने दो।
देव ने कहा.. " तुझसे कोई चीज छुपी हैं, जो मैं कहुगा। "
रानी ने मुंशी से कहा... एक पानी का गिलास ला दो... मुंशी ने वैसा ही किया। देव उठ कर बहार दरवाज़े के जा चूका था। उसके हाथ मे एक सिगरेट थी... पर मग़र उसके रानी थी... जिसको वो अनदेखा नहीं कर सका था।
सिगरेट उसने तोड़ मरोड़ कर के चकनाचूर कर के धरती पर फेक दी थी। रानी कुछ बोले सीधी निकल गयी थी। जैसे उसने कुछ नहीं देखा था।
वो आज भी साड़ी आसमानी रंग की पहने हुए थी। खूबसूरत लग रही थी। वो कार को स्टार्ट कर के जा चुकी थी।
तभी फोन की घंटी वजी -----
"---हेलो, देव बोल रहा हूँ। " देव ने मोबाइल 3310 कान पे लगा के बोला..
" वाह देव जी... आपकी वाइफ इतना सुंदर राइटग लिखती थी। " दूसरी तरफ से किसी लेडीज सिमी अग्रवाल की आवाज थी।
"आपको कैसे पता... " देव जानकारी लेने के लहजे से बोला था।
वो एक हीरा थी देव जी... उसकी लेखनी ने बता दिया... मैं इसको जल्द प्लाट मे फ़िल्म के आईडिया से लिखू गी।
ये रीना जी की मेहरबानी से हुआ हैं... "
चुप थे देव भी और सिमी राइटर भी।
" इसका बजेट का फ़िक्र मत करना... " फोन कट गया।
देव के होठो पे एक आभूझ सी मुस्कान थी। सोच रहा था, रानी मेरे बारे मे कितना जानती हैं, जितना भी जानती हैं, अच्छा ही जानती हैं।
सोच रहा था ---- वो मुझे खुश देखना चाहती हैं... खुश ही रहुगा... सच... तभी एक मोबाइल पे घंटी वजी।
" हेलो "
"--देव मैं रीना बोल रही हूँ। " देव संतोष जनक आवाज मे बोला।
"------रीना तुम मेरी लिए इतना कुछ अकेले कर रही हो... सिर्फ मुझे खुश देखने के लिए।"
" हाँ --- कोई जुर्म तो नहीं कर रही.... वो हस पड़ी। "
"अब कब आओगी... " देव ने आखें भरते कहा।
थोड़ी देर से भी पहले आ जाऊगी। "
घड़ी की टिक टिक चलती जा रही थी। तभी दरवाजे पर रंगोली पहने साड़ी रीना ख़डी थी।
देव ने कहा :- " रीना तुम मेरी कुमुदनी ही हो सच मे... "
आज ये सुन कर जैसे उसको विश्वाश न आया हो... बोली ---" कया कहा... " देव ने एक बार फिर दुरहा दिया था।
इतनी कसकर दोनों ने एक दूसरे को बाहो मे जकड़ लिया था....
बस जिंदगी जिसने मानी हो... वही कह सकता हैं ज़िन्दगी के बहुत रंग हैं... ज़िन्दगी की रंगोली....
(चलदा )--------------------- नीरज शर्मा
शाहकोट, जालंधर।
पिन 144702