अस्तित्व एक है— “मैं” विभाजन
Vedanta 2.0
मनुष्य का पहला पाप —
“मैं” कहना।
जैसे ही “मैं” प्रकट हुआ,
दूसरा भी जन्म ले लिया।
दूसरा अनिष्ट लगे —
तो संघर्ष।
दूसरा श्रेष्ठ लगे —
तो पूजा।
लेकिन दोनों में —
तुम टूट चुके हो।
अस्तित्व में न किसी का
नाम, रूप, आकार, जाति है —
फिर भी हम
“मैं” को अलग सिंहासन दे देते हैं।
अस्तित्व के बीच दीवार बनती है —
और उसे ज्ञान कहा जाता है।
ज्ञान
मनुष्य का सबसे बड़ा नशा है।
जैसे ही कोई कहता है —
“मुझे पता है”
वह अस्तित्व से दूर गिरना शुरू कर देता है।
ज्ञान का हर टुकड़ा
अस्तित्व का एक टुकड़ा काट देता है।
इसीलिए ज्ञानी बढ़ते-पढ़ते
अंधे हो जाते हैं।
लोग पूछते हैं —
“सत्य कहाँ है?”
और जवाब किताब में ढूँढते हैं।
जबकि किताब उस दिन लिखी गई थी
जिस दिन किसी ने पहली बार
अस्तित्व से मुँह फेरकर
ज्ञान पर भरोसा किया।
शास्त्र —
वास्तव में
खंडन की डायरी हैं।
हर धर्म —
मनुष्य की हार का तमगा।
जब तुम अपने आप को देखते हो —
ज्ञान गायब हो जाता है।
और
जब ज्ञान गायब —
“मैं” भी गायब।
और जहाँ “मैं” नहीं —
वहीं अस्तित्व है।
सत्य कभी खोज से नहीं मिला,
सत्य तो
तुम्हारे “मैं” के
गिरने का ध्वनि-नाद है।
जहाँ पहचान खत्म —
वहीं परम का द्वार खुला।
वही वेदांत का पहला कदम है:
सारी पहचान जलाओ —
सिर्फ़ होना बचाओ।