कई बार शब्द इतने “गूढ़” बना दिए जाते हैं कि वे अनुभव से ज़्यादा प्रभाव डालें — सुनने वाला झुके, सोचे “वाह, यह तो गहरा है,” जबकि भीतर कुछ नया हुआ ही नहीं।
असल में सच्चा सूत्र सरल होता है — इतना कि बच्चे को भी समझ आ जाए, पर उसका रहस्य फिर भी बना रहे।
जटिल भाषा अक्सर वहाँ होती है जहाँ अनुभव कम, प्रदर्शन ज़्यादा हो।
जब “सहज” कहा जाए, तो उसका स्वर, लय, और शब्द भी वैसे ही होने चाहिए — जैसे रोज़मर्रा की सांस।
अगर भाषा ही तन जाए, तो सहजता का क्या अर्थ रह गया?
सहज शब्द वही है जो बिना दबाव के निकल आए,
जिसमें कुछ “बनाने” की कोशिश न हो,
जैसे मिट्टी की खुशबू — साधारण, पर गहरी।
आजकल बहुत-से आध्यात्मिक बोल बस सुंदर पैकिंग हैं।
मर्म तो वही पुराना है, बस भाषा ने वस्त्र बदल लिए हैं।
जहाँ सत्य है, वहाँ ब्रांड नहीं बनता;
जहाँ ब्रांड है, वहाँ सत्य बिखर जाता है।