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"काश हम बच्चे होते..."
यह किताब केवल बचपन की यादों का पिटारा नहीं है, बल्कि एक ऐसा जादुई दर्पण है, जिसमें झाँकते ही हम अपने मासूम दिनों की गलियों में लौट जाते हैं — जहाँ माँ की गोदी सबसे सुरक्षित ठिकाना थी, पापा की डाँट में छुपा हुआ दुलार था, और दादी की धोती में बंधे सिक्के किसी ख़ज़ाने से कम नहीं लगते थे।
ज़िंदगी की इस भागदौड़ में जब मन थककर चुप हो जाता है, जब अवसाद (डिप्रेशन) और दिमागी दबाव हमें भीतर से भारी कर देते हैं, तब यह किताब हमारे दिल को थाम लेती है। इसके शब्द थके हुए मन को सहलाते हैं, बोझिल दिमाग को हल्का करते हैं और हमें उस मासूमियत की धरती पर ले जाते हैं, जहाँ चिंता का नाम भी नहीं था।
लेखक निर्भय शुक्ला ने अपने सहज और गहरे शब्दों से यह दिखाया है कि बड़ा होने की जटिलताओं के पीछे आज भी एक बच्चा हम सबके भीतर जीवित है — जो हँसना चाहता है, खेलना चाहता है और बिना किसी बोझ के जीना चाहता है।
यह किताब केवल स्मृतियाँ नहीं जगाती, बल्कि आपके अंतर्मन को छूकर आपके भीतर की टूटन को जोड़ती है। यह आपको अपने उस भूले-बिसरे रूप से मिलवाएगी और शायद आपके होंठों पर भी वही आहट ले आएगी —
"काश हम बच्चे होते..." 🌸