...मौसम में आज काफी बदलाव हो रहा था।
बारिश के होने का कही आसार नजर नहीं आ रहा था।
यह साल का वो दौर था,जब सर्दियां आने की कगार पर थी और बारिश के थम जाने में कुछ समय था।
मानसून की वापसी की रह सभी देख रहे थे,
क्योंकि पिछले तीन महीने में इसकी बहुत कमी हो रही थी।
कैसे हो तुम,
मैं बढ़िया कहते हुए ,परीक्षित ने दोहराया,
की मैने तुम याद किया था।
हां...मुझे पता है..सामने संदेश का प्रत्युत्तर देते हुए,
निहारिका ने दोहराया। निहारिका हाल की कुछ दिनों से परीक्षित को जानने लगी थी।
दोनों में कुछ एक औपचारिक बाते होने लगी थी।
कुछ हद तक हम अगर एक दूसरे से बात करने लगते है,
तो अभाव का पता चल जाता है।
जो कि मानसिक तौर पर एक दूसरे से संवाद करने का जरिए होता है।
संवाद को खत्म करते हुए,
दूसरे दिन मिलने का वादा करके ,
एक दूसरे से विदा ली।
समय का पहिया इतनी सफाई से चलता ही की,
उसके आगे हर एक को झुकना पड़ता है।
उम्र के पड़ाव पर हर कोई अधूरा सा ,लगताहै।
किसी एक के चले जाने से दूसरा कितना मायूस हो सकते,
इसकी व्याख्या करना बेहद मुश्किल है।
सोने की कोशिश करता हुआ,
परीक्षित आज खुद को बेहद बहस और लाचार समझ रहा था।
इसकी वजह से वह अनजान था।
इतनी बेचैनी उसने कभी महसूस नहीं की।
मनोरंजन के कई साधन होने के बावजूद वह ,
खुद इन सबसे परे पा रहा था।
ऐसा कुछ भी नहीं ,जो इसे शांत कर सके।
उसने ऐसे ही पड़े रहना ठीक समझा।
अपने मोबाइल को मेज पर रखकर वह अपने उन विचारों को बहने दे रहा था।
एक सुनसान रास्ता ,
ऊबड़खाबड़ सा,
तरफ सूखे घास।
उस साल भी बारिश कम ही थी।
बैलों की गले में लगी हुई घंटियों की आवाज।
उसके कानो में। गूंज रही थी।
धीरे धीरे वह आवाज उसे समीप आने जैसे प्रतीत हो रही थी।
एकाएक से उसे अपने दादाजी याद आ गए।..
उसके आंखों में। आंसू बहने लगे।
एक एक बूंद गालों से होकर तकिए तक जाने लगी।
किस तरह उन्होंने ,
परीक्षित को संभाला था ,
वह हर एक पल उसकी आंखों के ,
एक फिल्म की तरह चलने लगा था।
भावनाओं का सागर उमड़ने लगा,और वह उस बेचैनी में खो जाने लगा।
क्रमशः।