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दो सांसों की बीच में होने वाली, लय है, वहीं जीवन की शाश्वती है। 😊🌄🌿🌅
मी पाहिले तिथ साऱ्यात आहेस तू, पडणाऱ्या पावसाच्या थेंबात, गवतावरील दवांत हसणाऱ्या फुलांत, आणि अंगणी पडणाऱ्या पारिजातकाच्या सड्यात ....
.....हर एक व्यक्ति अपने आप में निराला है। किसी विशेष व्यक्तित्व की पहचान होने तक , तब तक जब तक उसे अपने खो जाने का बहाना न मिल जाए। यह रिश्ता कोई भी हो सकता है, जैसे किसी अचल वस्तु में समाई हुई ऊर्जा को , गतिज ऊर्जा से गतिमान किया जाए। वह उस बल के समान है, जिसे महत्व मिल जाता है। हर एक के जीवन में ऐसे व्यक्ति ,अवश्य होते है, जरूरी है उन्हें सम्हाले रखने की🌿😊शुभ रात्री।
..वास्तविकता में आने पहले , हर चीज मन की कल्पना भर सी होती है। जिसकी जितनी ताकतवर शक्ति होगी, शायद वह उसे आकर और साकार कर सकता है।
... अरे नहीं । ऐसी कोई बात नहीं है, वो न हम ट्रेन में सफर कर रहे है। तो नींद लग गई होगी तो , फोन नहीं उठा पाया तुम्हारा, जी ठीक..कहते हुए, अभिजीत ने कैलाश से कहा, नीरज जग जाए तो उसे बधाई दें । और समय मिले तो फोन करने जरूर कहे। ठीक है। कहते हुए कैलाश ने फोन काट दिया। अभिजीत जो ,कि नीरज की कामयाबी की खुशी में शामिल होकर उसे बधाई देना चाह रहा था, मगर,दूसरी तरफ नीरज उसका फोन नहीं उठा रहा था। इस व्यवहार से , अभिजीत के मन में यह सवाल बार बार उसे परेशान किए जा रहा था, की सफलता आदमी की इतना बदल देती है। जो कि,अब वह कुछ खास न रहा तो ,उससे दरकिनार कर लिया जाए। बड़े ही बोझिल मन से , अभिजीत ने खुद का संभाला ..खेती के काम में खुद को जुटा दिया। मगर इसके मन से नीरज का इस तरह से बदल जाना , सह नहीं पा रहा था। और हो भी न क्यों। आखिर कर उसकी मेहनत हो रंग लाई थी। सरकारी नौकर करने वाले और खेत खलिहान में काम करने वाले में अंतर तो रहेगा ही, यह बात तो अप्रत्यक्ष तरीके से नीरज दिखा रहा था। शायद हां। 🙂 किस्से,कुछ अधूरे , कुछ सच्चे
...मौसम में आज काफी बदलाव हो रहा था। बारिश के होने का कही आसार नजर नहीं आ रहा था। यह साल का वो दौर था,जब सर्दियां आने की कगार पर थी और बारिश के थम जाने में कुछ समय था। मानसून की वापसी की रह सभी देख रहे थे, क्योंकि पिछले तीन महीने में इसकी बहुत कमी हो रही थी। कैसे हो तुम, मैं बढ़िया कहते हुए ,परीक्षित ने दोहराया, की मैने तुम याद किया था। हां...मुझे पता है..सामने संदेश का प्रत्युत्तर देते हुए, निहारिका ने दोहराया। निहारिका हाल की कुछ दिनों से परीक्षित को जानने लगी थी। दोनों में कुछ एक औपचारिक बाते होने लगी थी। कुछ हद तक हम अगर एक दूसरे से बात करने लगते है, तो अभाव का पता चल जाता है। जो कि मानसिक तौर पर एक दूसरे से संवाद करने का जरिए होता है। संवाद को खत्म करते हुए, दूसरे दिन मिलने का वादा करके , एक दूसरे से विदा ली। समय का पहिया इतनी सफाई से चलता ही की, उसके आगे हर एक को झुकना पड़ता है। उम्र के पड़ाव पर हर कोई अधूरा सा ,लगताहै। किसी एक के चले जाने से दूसरा कितना मायूस हो सकते, इसकी व्याख्या करना बेहद मुश्किल है। सोने की कोशिश करता हुआ, परीक्षित आज खुद को बेहद बहस और लाचार समझ रहा था। इसकी वजह से वह अनजान था। इतनी बेचैनी उसने कभी महसूस नहीं की। मनोरंजन के कई साधन होने के बावजूद वह , खुद इन सबसे परे पा रहा था। ऐसा कुछ भी नहीं ,जो इसे शांत कर सके। उसने ऐसे ही पड़े रहना ठीक समझा। अपने मोबाइल को मेज पर रखकर वह अपने उन विचारों को बहने दे रहा था। एक सुनसान रास्ता , ऊबड़खाबड़ सा, तरफ सूखे घास। उस साल भी बारिश कम ही थी। बैलों की गले में लगी हुई घंटियों की आवाज। उसके कानो में। गूंज रही थी। धीरे धीरे वह आवाज उसे समीप आने जैसे प्रतीत हो रही थी। एकाएक से उसे अपने दादाजी याद आ गए।.. उसके आंखों में। आंसू बहने लगे। एक एक बूंद गालों से होकर तकिए तक जाने लगी। किस तरह उन्होंने , परीक्षित को संभाला था , वह हर एक पल उसकी आंखों के , एक फिल्म की तरह चलने लगा था। भावनाओं का सागर उमड़ने लगा,और वह उस बेचैनी में खो जाने लगा। क्रमशः।
....ऐसा कुछ नहीं है। जैसे तुम सोच रहे हो ,वैसी बात नहीं। काम ही इतना है कि, मैं तुम्हारे लिए समय नहीं निकाल पा रही हूं। लेकिन इस स्पष्टीकरण से विवेक का समाधान न हुआ। वह बहुत अच्छी तरह से इस संभाषण का अर्थ जानता था। मगर,अपराजिता की मन की हालत को देखकर उसने , उसपर व्यक्त होना सही न समझा। मन के अंदर जब शोर हो , तब कुछ भी अच्छा नहीं लगता। चाहे,कितना भी अजीज रिश्ता अपने जीवन में समाहित न हो। वह हर एक पल, डर,बेचैनी और उदासी की उस बेल पर लगे फुल की तरह है, जो सुंदर होते हुए भी हम उसका सहारा लेकर मन को शीतलता का अनुभव कराए। व्यक्तिगत रूप से आज हर एक इंसान इसी , भावना में रह रहा है। चाहे वह जीवन की किसी भी पायदान पर हो, मगर अपने निजी जीवन में व्यक्त करने के लिए , एक विश्वासपात्र का होना बेहद जरूरी है,
अपेक्षा ही जीवन का आधार हैं
मुझसे बात किए बिना ,तुम्हे नींद कैसे आ सकती है.? उठो...और मुझसे बात करो। कुछ हद तक उसे जैसे वह सूचना देते हुए कविता बात कर रही थी। नरेश की पलके खुल गई। उसने अपने ऊपर सीलिंग पर धीमी धीमी गति से चलते हुए पंखे पर नजरे गड़ाई। अपने दाएं और मुड़ते हुए वह बिस्तर पर बैठ गया। अपने आस पास देख रहा था। मगर कमरा पूरी तरह से खाली था। उसमें वह खुद अकेला ही है। इसका अहसास होते ही... वह आत्मग्लानि से भर गया। बीते वक्त की वह हसीन शाम , जो अक्सर कविता के साथ टहलने की निकल जाता था, वह याद नरेश के मस्तिष्क पर हावी हो रही थी। सपना और हकीकत के उस द्वंद्व में वह इस कदर उलझ गया कि उसे दोनों में स्पष्ट अंतर दिखाई नहीं दे रहा था।
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