अध्याय : माया और मनुष्य की विडम्बना ✧
1. प्रस्तावना : दो छोर, एक ही खालीपन
आज का मनुष्य दो विपरीत रास्तों पर खड़ा दिखाई देता है।
एक ओर वह धन, साधन और भोग की दौड़ में है;
दूसरी ओर त्याग, धर्म और संन्यास की ओर भाग रहा है।
पर आश्चर्य यह है कि दोनों ही दिशाओं में
उसका भीतर का रिक्तपन नहीं मिटता।
भोगी भोग नहीं पा रहा,
संन्यासी सत्य तक नहीं पहुँच पा रहा।
धनवान धन से असंतुष्ट है,
धर्मगुरु अपनी भीड़ और संस्था से बंधा हुआ है।
स्त्री के पास सौंदर्य है,
पर वह भी प्रेम के बजाय
प्रतिष्ठा और सुरक्षा की माया में उलझ गई है।
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2. भोगी का संकट : साधन है, अनुभव नहीं
मनुष्य ने प्रगति के नाम पर धन, साधन और तकनीक का अम्बार खड़ा कर लिया है।
परंतु उसे उनका सही उपयोग करना नहीं आता।
वह भोजन करता है,
पर स्वाद का रस नहीं लेता —
क्योंकि मन तुलना और चिंता में उलझा है।
वह घर बनाता है,
पर उसमें ठहरकर शांति का स्पर्श नहीं करता।
वह संबंध बनाता है,
पर उनमें प्रेम के बजाय स्वामित्व भर देता है।
इसलिए साधनों का मालिक होकर भी
वह भीतर से गरीब है।
उसका जीवन केवल प्रदर्शन में फँसा है।
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3. सौंदर्य का संकट : प्रेम की आँख अनुपस्थित
यदि धन पुरुष का प्रतीक है,
तो सौंदर्य स्त्री का प्रतीक है।
सौंदर्य का उद्देश्य था प्रेम जगाना,
हृदय को कोमल और समर्पित बनाना।
लेकिन सौंदर्य अब प्रेम का द्वार न रहकर
साधन और प्रतिष्ठा का वस्त्र बन गया है।
स्त्री अपनी सुंदरता का प्रदर्शन कर रही है,
और समाज ने भी इसे ‘सामान’ बना दिया है।
यदि यही सौंदर्य राधा की भक्ति
या मीरा की तन्मयता में बदलता,
तो अनंत आनंद मिलता।
पर जहाँ प्रेम खिलना था,
वहाँ बाज़ार सज गया।
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4. धनवान का संकट : तृप्ति नहीं, भूख का विस्तार
धनवान के पास वस्तुओं का अंबार है,
फिर भी भीतर कमी का अनुभव है।
जितना मिलता है, उतना और चाहिए।
वह सोचता है —
“सबसे बड़ा घर होगा,
सबसे ऊँचा पद होगा,
सबसे बड़ा धन होगा —
तब मैं शांत हो जाऊँगा।”
पर यह क्षण कभी नहीं आता।
मृत्यु जब आती है,
वह सिकंदर की तरह खाली हाथ चला जाता है।
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5. संन्यासी और धर्मगुरु का संकट : सत्य से दूरी
यह मानना भूल है कि केवल भोगी ही वंचित है।
धर्म और संन्यास का मार्ग भी
माया से मुक्त नहीं है।
आज का धर्मगुरु चाहता है —
अधिक भक्त, अधिक भीड़, अधिक संस्था।
वह सोचता है —
“मेरे त्याग से मुझे स्वर्ग मिलेगा।”
पर क्या यह भी माया की एक और तस्वीर नहीं है?
जिस प्रकार भोगी धन में संतोष खोज रहा है,
उसी प्रकार संन्यासी उपवास और प्रवचन में शांति ढूँढ रहा है।
पर दोनों का अंत एक ही अज्ञान में होता है।
सत्य और प्रेम जब मिलते हैं,
तो न गुरु बचता है, न शिष्य।
वहाँ केवल अनुभव बचता है।
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6. समान विडम्बना : तीनों की स्थिति एक
शेष आगामी 📚 में