“यह सिर्फ एक किताब नहीं…
यह उन गांवों का स्मारक है जिन्होंने हमें हमारी जड़ों से जोड़ने की कोशिश की — चाहे हम लौटे या नहीं।”
– जब पहाड़ रो पड़े (लेखक: धीरेंद्र सिंह बिष्ट)
जब आपने गांव छोड़ा था, क्या सच में सिर्फ जगह छोड़ी थी?
या पीछे रह गई थी वो मां जो अब भी हर त्यौहार पर वही मिठाई बनाती है —
वो पिता, जो आज भी हर सुबह खेतों में हल लेकर निकल जाते हैं…
शायद इस उम्मीद में कि बेटा एक दिन लौटेगा और कहेगा —
“बाबू, चलो खेत दिखाओ…”
“जब पहाड़ रो पड़े” कोई साधारण किताब नहीं,
यह उस खामोशी की चीख है जिसे आज तक कोई सुन न सका।
हर अध्याय में एक आंसू है,
हर लाइन में एक गांव की दहलीज़,
और हर शब्द में — एक सवाल:
क्या हम सच में अपने गांव को भूल चुके हैं?
अगर आपने कभी पलायन को महसूस किया है,
अगर आपको अपने बचपन का आंगन याद आता है,
अगर मां की रसोई की गंध अब भी नाक में बसती है —
तो यह किताब आपके दिल के सबसे कोमल हिस्से को छू जाएगी।
यह सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं… महसूस करने के लिए है।
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