अगर तुम साथ हो
बारिश की हल्की बूंदें खिड़की से टकरा रही थीं। रागिनी अपनी डायरी में कुछ लिखने ही वाली थी कि फोन की घंटी बज उठी। स्क्रीन पर नाम चमक रहा था — "आरव"। दो साल से कोई बात नहीं हुई थी। लेकिन दिल अब भी उसी नाम पर धड़कता था।
"हैलो..." रागिनी की आवाज़ कांप रही थी।
"रागिनी... मैं दिल्ली आ गया हूं। क्या हम मिल सकते हैं?" आरव की आवाज़ में वही अपनापन था, वही थमी हुई सी बेचैनी।
दो साल पहले...
कॉलेज का आखिरी दिन था। दोनों ने साथ-साथ चार साल बिताए थे — हँसी, आँसू, झगड़े, मोहब्बत — सब कुछ साथ में जिया था। लेकिन एक ज़िम्मेदारी के आगे मोहब्बत हार गई थी। आरव को अपने परिवार के लिए अमेरिका जाना पड़ा। रागिनी ने मुस्कुराते हुए उसे विदा किया था, लेकिन अंदर से वो टूट चुकी थी।
वर्तमान में...
रागिनी कैफ़े में बैठी थी, हाथों में वही पुरानी डायरी। आरव आया — थोड़ा बदला हुआ, लेकिन आँखों में वही प्यार।
"रागिनी... ये दो साल बहुत भारी थे। हर दिन तुम्हारी कमी महसूस की। लेकिन अब मैं लौट आया हूं — हमेशा के लिए।"
रागिनी की आँखों में आँसू थे। वो कुछ नहीं बोली। बस अपनी डायरी खोली, और एक पन्ना आरव की तरफ बढ़ा दिया। उस पर लिखा था —
"ज़िन्दगी की हर राह आसान लगती है, अगर तुम साथ हो..."
आरव ने उसका हाथ थाम लिया।
और इस बार, उन्होंने साथ चलने का वादा नहीं किया — साथ चलने लगे।