ठहरती शाम और ठंड से बेहाल ,
ढलते शाम ने कहां अब वक्त हो चला।
उठते औजार और थके चेहरे पर घर जाने की आस।
भूख की लालकता , छोटे बच्चे –सी उत्सुकता ।
धुंधले और मटमेल सही ।
मेहनतगरो की शायद निशान ही यही ।
छटपटाहट में न जाने क्यों ?
यह रास्ते लंबे नजर आते ,
घर तक का सफर फिर भी न जाने क्यों ?
महकते से नजर आते ।
रास्ते की चकाचौंध नजर नहीं आती ,
बस नजर आती है द्वार पर खड़ी एक आस ।
और भूख को घर के खाने की तलाश ।
साइकिल की टीन– टिन में एक अलग –सा सुकून है
बच्चों की उत्सुकता से
एक बार फिर से भर जाता जुनून है
थक जाता है शरीर , लेकिन मन नहीं थकता ।
बच्चों के चेहरे की खुशी ,
इससे ज्यादा जेब में और कुछ नहीं ।
वो भी क्या दौर था ,
न होकर भी पास सब था ।
✍️रिंकी उर्फ चन्द्रविद्या