मानव जीवन
जीवन! तू कितना कठिन,
कभी हँसी, कभी करुणा बनता।
सुख में देता मधुर सपन,
दुःख में अश्रु की गाथा बनता।
बालक जब जन्मा घर आँगन,
माँ की गोदी में किलकारी,
मिट्टी के खिलौनों से खेला,
नादानी में बीती उजियारी।
यौवन आया, स्वप्न जगे,
मन में सौ अरमान पले।
कर्मक्षेत्र में क़दम बढ़ाया,
संघर्षों से पथ नवल चले।
धन के पीछे दौड़ा मन,
स्नेह-प्रेम सब भूल गया।
घर आँगन छूटा कहीं,
स्वार्थ में मन फूल गया।
बूढ़ा हुआ तो थक गया,
शरीर भी बोझ सा लगने लगा।
संपत्ति थी, पर अपनापन नहीं,
अपने ही छूटने लगे, संग नहीं।
जीवन यही, एक पहेली,
धूप-छाँव का खेल निराला।
कभी हँसी, कभी विषाद,
कभी उजाला, कभी अंधियाला।
"जो किया, वही साथ जाएगा,
संपत्ति नहीं, बस नाम रह जाएगा।
मानवता का दीप जलाकर चल,
वरना तेरा भी अंधकार रह जाएगा!"