"मनुज तू स्वयं प्रकाश बन"
सुन रे मनुज! जगत की इस माटी में,
तेरी ही छवि बसती आई।
कालचक्र के चक्रव्यूह में,
तू ही अभिमन्यु बनकर लड़ता आया।
क्यों फिर आज अधीर बना है?
क्यों तू मौन खड़ा है द्वारे?
जिस धरा पर ऋषियों ने गाया,
वहीं आज अश्रु बहे हारे?
स्मरण कर, वे वेद-ऋचाएँ,
जो तुझमें जीवन भरती थीं।
वह गीता का अमृत स्वर,
जो तुझमें तेज भरती थीं।
क्या हुआ जो तम घना है,
क्या हुआ जो दिन ढला है?
दीप अगर तू स्वयं बनेगा,
हर दिशा में उजियाला होगा।
तू अशोक की चेतना बन,
तू बुद्ध की करुणा बन।
तू कृष्ण का सारथी बन,
तू राम की मर्यादा बन।
मत थक, मत रुक, मत झुक,
तेरी रगों में रक्त वही है।
जो वेदों की ऋचाओं में,
कभी अमरता का स्वर बना।
जाग रे मनुज! स्वप्न देख नया,
अपने ही पथ का प्रकाश बन।
तेरे भीतर जो सोया देव,
उसका फिर से आभास बन।
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