बहुत रूठने लगी हैं ख्वाहिशें मुझसे ,
मुफलिसी के घर में रहने लगा हूं अब ,
कोई भूले से आना नहीं चाहता यहां ,
खुद अपनी मौज में बहने लगा हूं अब ,
हर शख्स दिवाखा करता है यहां पर ,
ख़ुद ही जख्मों को सहने लगा हूं अब ,
खफा हो जाते हैं अक्सर मुझे लोग ये ,
सच लोगों के मुंह पे कहने लगा हूं अब ,
सोता नहीं आजकल रातों में अक्सर ,
चांद तारों को देख जगने लगा हूं अब ,
लोग पूछते हैं क्या लिखते रहते हो ये ,
मन के जज़्बात को लिखने लगा हूं अब ,
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