Hindi Quote in Motivational by Vedanta Two Agyat Agyani

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✦ आत्मसाक्षात व्यक्ति का धर्म ✦
जब कोई व्यक्ति आत्मसाक्षात हो जाता है —
संत होता है, महात्मा होता है,
ब्रह्म में लीन होता है —
तो उसके जीवन का केवल एक ही धर्म रह जाता है:
दूसरे को आत्मतत्व की ओर संकेत देना।
न संस्था,
न संगठन,
न सेवा-योजना,
न सदस्यता।
उसका कार्य व्यवस्था बनाना नहीं,
उसका कार्य ब्रह्म का बोध देना है।
आज यदि कोई संत IT इंजीनियर है, PhD है,
तो वह आध्यात्मिक विज्ञान को
उसी प्रकार सरल कर सकता है
जैसे विज्ञान पानी को समझाता है—
पानी = दो हाइड्रोजन + एक ऑक्सीजन।
उसी तरह आत्मा, चेतना, सत्य, परमात्मा
को भी सूत्रों, तर्क और स्पष्टता में
समझाया जा सकता है।
जिसे आत्मबोध हो गया —
उसके लिए धन, साधन और सुविधा
का कोई मूल्य नहीं रह जाता।
इसलिए लोग अपने आप
झुकते हैं,
जय-जयकार करते हैं,
हाथ जोड़ते हैं।
यह संत की आवश्यकता नहीं,
यह जनमानस की स्वाभाविक कृतज्ञता होती है।
✦ मूल बिंदु ✦
आत्मा को जान लेना —
यही सत्य है।
यही अमृत है।
यही मोक्ष है।
यही समाधि है।
यही पूर्णता है।
यही शांति, प्रेम और संतोष है।
इस बिंदु के बाद
धर्म, सेवा और संस्था — अप्रासंगिक हो जाते हैं।
आज सोशल मीडिया जैसे माध्यमों से
बिना किसी धन की आवश्यकता के
पूरी दुनिया को ज्ञान दिया जा सकता है।
✦ सेवा किसका धर्म है ✦
सेवा उनका धर्म है—
जिनके पास धन है
जिनके पास उद्योग है
जिनके पास साधन हैं
जिनके पास व्यापार है
उनका कर्तव्य है देना।
गुरु का कार्य सेवा करना नहीं है।
गुरु का कार्य है—
ऊर्जा देना
दृष्टि देना
समझ देना
गुरु कोई आशीर्वाद नहीं देता।
वह बहता हुआ प्रेम है।
जिसके भीतर प्यास होती है,
वह अपने आप पीता है।
गुरु वृक्ष के समान है—
छाया देता है
फल देता है
सुगंध देता है
ऑक्सीजन देता है
वह यह नहीं कहता—
पहले सदस्य बनो,
दान दो,
फिर फल मिलेगा।
यदि विषय कला, शिक्षा या व्यापार का हो —
तो दक्षिणा उचित है,
क्योंकि वहाँ गुरु भी जड़ जीवन में खड़ा है।
लेकिन जिसे आत्मबोध हो गया —
वह बिना माँगे
उतना ही स्वीकार करता है
जितना आवश्यक है।
✦ बोध और कृतज्ञता ✦
जिससे बोध प्राप्त होता है,
उसके प्रति दिया गया धन
दान नहीं होता,
धार्मिक रस्म नहीं होती।
वह केवल
कृतज्ञता का स्वाभाविक उपहार होता है।
बोध मिलने के बाद
भौतिक भोग व्यर्थ हो जाते हैं।
जो अर्पण होता है,
वह भय या लालच से नहीं,
आनंद और प्रेम से होता है।
✦ बोध के बाद सेवा ✦
जिसे ज्ञान मुक्त रूप से प्राप्त होता है,
उसके भीतर
उसे आगे बाँटने की प्रवृत्ति
स्वतः उत्पन्न हो जाती है।
यह कोई संगठन नहीं,
कोई अभियान नहीं,
कोई प्रचार नहीं —
यह जीवन की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।
आलोचना, गालियाँ, विरोध —
सब अप्रभावी हो जाते हैं।
क्योंकि
बोध के बाद
गाली भी अमृत प्रतीत होती है।
✦ आज का विरोधाभास ✦
आज अनेक तथाकथित गुरु—
थोड़ा धर्म
थोड़ा शस्त्र
थोड़ा व्यवसाय
थोड़ा भगवान
थोड़ा भय
थोड़ा चमत्कार
सब मिलाकर
एक मुखौटा बन गए हैं।
यह आत्मसाक्षात नहीं है।
यह व्यवस्था-संचालन है।
जहाँ डर, व्यापार और सत्ता हो —
वहाँ आत्मबोध नहीं होता

Hindi Motivational by Vedanta Two Agyat Agyani : 112009979
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