"प्रेम नहीं, छल का जाल है ये"
तुम जिस मोह में फँस बैठी हो,
प्रेम नहीं—छल का जाल है ये,
जिसे भगवान मान रही तुम,
दरअसल वह घड़ियाल है ये।
क्यों भूल गई माँ की ममता,
पिता का चेहरा याद नहीं,
कैसा अंधा मोह है तुझको,
सच्चे रिश्तों का मोल नहीं।
धर्म बदलकर प्रेम का वादा,
सच्चाई कहाँ मिली इस खेल में?
सीमा–श्रद्धा कितनी बलि चढ़ी,
ना जाने कितनी जली इस मेले में।
न कोई जन्मो का बंधन इसमें,
बस खिलौना समझेगा तुझको,
जब उसका जी भर जाएगा,
तब अब्बा के नीचे सुलाएगा तुझको।
ये झूठे सपनों की दुनिया,
तेरे जीवन को छल बनाएँगे,
चाचा–मामा–भाई–बंधु,
तुझे रखैल बनाकर मिटाएँगे।
– ©️ जतिन त्यागी... ✍️