कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है
कि जिंदगी तेरी जुल्फों की नर्म छाँव में गुज़रने पाती,
तो शादाब हो भी सकती थी!
ये रंज-ओ-ग़म की सियाही जो दिल पे छाई है;
तेरी नज़र की शुआँ मैं खो भी सकती थी!
मगर ये हो ना सका!
मगर ये हो ना सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं तेरा गम तेरी जुस्तजू भी नहीं!
गुजर रही है कुछ इस तरह जिंदगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं!
ना कोई राह ना मंजिल ना रोशनी का सुराग,
भटक रही है अंधेरों में जिंदगी मेरी!
इन्ही अँधेरों में रह जाऊँगा कभी खो कर,
मैं जानता हूँ मेरी हम-नफस मगर यूँही!
कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है!