आज मैंने टटोला खुद को,
मुझे महसूस हुआ —
मैं अब पहले जैसी नहीं रही।
करुण, संवेदनशील, नाज़ुक, मासूम,निश्चल, स्निग्ध मन...
शायद वो सब मैं कहीं
किसी धुंधले मोड़ पर छोड़ आई हूं।
जब मैं बार-बार रोई,
गिड़गिड़ाई, बेबस ,मौन में भीगी रही
हर बार मैंने अपने भीतर की स्त्री को
मृदुता की कब्र में धकेला।
कितनी दफा मैंने खुद को कोसा —
क्यों हूं मैं इतनी संवेदनशील?
क्यों हूं मैं इतनी करुण?
क्यों मेरी आंखें इतनी अश्रु-बोझिल हैं
कि हर बात में बह जाना जानती हैं?
क्यों हूं मैं इतनी नाज़ुक कि
मुझे बार-बार तोड़ा जाता है?
मेरी ओर से हर दफा
पाषाण सा रुख मोड़ा जाता है।
और मैंने जाना —
मेरे भीतर की वही कोमल स्त्री
मेरे लिए सबसे घातक है।
मैंने उसे अनजाने, कई बार,
बिन बोले, बिन देखे,
अपनी ही कठोर हथेलियों से
दफ़ना दिया।
अब मैं शिलाखंड सी हो गई हूं।
मेरा कुछ स्त्रीत्व मुझसे
छूट गया है —
या शायद वो मर चुका है,
हो चुका है किसी बंजर आत्मा का अवशेष,
या शायद अब भी
किसी कोने में, बिन हरकत, बिन स्पंदन,
कोमलता के श्मशान में
निस्पंद पड़ा है।
कभी सोचती हूं —
क्या सच में मर जाती है वो?
या बस बेजान छाया बनकर
मेरी परछाइयों में पलती रहती है?
शायद वो अब भी
किसी पाषाण की भीतरी दरार में
सिहरती सांसों की तरह है,
शायद वो अब भी
मेरी करुणा की दरकती दीवारों में दबी हुई है।
कभी रात की खामोशी में
जब मैं अपनी हथेलियों को देखती हूं,
तो लगता है —
शायद मेरी उंगलियों में
अब भी थोड़ा सा स्पर्श बचा है,
शायद मेरी जर्जर आत्मा में
अब भी कोई दबा हुआ विलाप बाकी है।
शायद मेरी भीतर की स्त्री
मरी नहीं है,
शायद वो थकी है,
चुप है,
सिहरती है,
और मैं —
शायद अब उसे फिर से
छूने की हिम्मत नहीं रखती।
ArUu ✍️