“हे प्राणप्रिये” (कविता)
हे प्राणप्रिये,
अब तो तुम हो गई विदा,
अब रहोगी मुझसे दूर सदा,
थोड़ा मान था तुमपे थोड़ा अभिमान,
मैं हमेशा तुम पर छिड़कता रहा जान,
माना जीवन फूलों की सेज तो नहीं है,
पर मुट्ठी से फिसलती रेत भी तो नहीं है,
जब प्रेम का ये घरौंदा है तुमने बनाया,
क्या कभी तुम्हे तब मेरा ख्याल न आया ?
तुमने इतनी राहें आखिर क्यों बदली ?
क्या संवेदनाएं हो चली हैं छिछली ?
जब चुनना ही था तुम्हे दूजा प्रेम का पथ,
फिर हमसे क्यों किये इतने कौतुक-करतब ?
इक नया पासवां जो तुमने है चुना,
अब चैन से उसके ही संग रहना,
कितने हिस्सों में यूँ बंटकर रहोगी ?
कब तक यूँ ही खुद से जूझोगी ?
माना जीवन में आगे बढ़ना भी है इक मजबूरी,
पर जो कुछ किया था तुमने, क्या था वो जरूरी ?
आज कलम में कलेजे का है लहू,
मैं तुमसे और कुछ क्या ही कहूँ ?
नियति ने ही मेरी नियति बिगाड़ी,
तभी तो उजड़ी स्वप्नों की खेती -बाड़ी,
कहने को कुछ न अब रहा बाकी,
‘हे प्राणप्रिये’ तुम खुश रहना साथी।
समाप्त
कृते
दिलीप कुमार