“सबसे उदास दिन”
सबसे उदास दिनों में भी
वह लडक़ी कभी-कभी
यूँ ही मुस्काती थी,
क्योंकि उसे रह-रह कर
याद आ जाता था कि दुनिया जिसे अब भी
लड़की ही समझती है
वह सचमुच कभी
हँसती-मुस्कराती खिलदंड
लड़की हुआ करती थी,
सबसे उदास दिनों में भी
उस लड़की को वह लड़का
रह- रह कर याद आता था
जो अक्सर कहा करता था कि मैं तुम्हारे लिये चांद-तारे भी तोड़ लाऊंगा
और तुम्हे पाने के लिए आकाश-पाताल एक कर दूंगा
ये और बात है कि इसी शहर में रह रहे उस लड़के ने अब
उससे कोई वास्ता नहीं रखा,
सबसे उदास दिनों में भी वही लड़की,
खुद की उदासी से उकताकर बनाव-श्रंगार करके अकारण
खुद को निहार भी लेती थी
तभी उसे एक टीस उठती थी कि उसकी जिंदगी तो महज एक चलती चाकी है
जिसे जीवन जीना नहीं बल्कि काटना ही है ,
सबसे उदास दिनों में उस
लड़की के घरवालों ने ये भी उम्मीद की थी कि वह उदास लड़की कहीं मर-खप जाती
तो बेहतर ही होता क्योंकि
उन्हें कहीं जवाब न देना पड़े कि लड़की का घर आखिर क्यों नहीं बस पा रहा है ?
सबसे उदास दिनों में भी वही लड़की
जो अपनी उदासी से जूझते -जूझते और अपने से हारकर
मरने गई थी ट्रेन से कटकर
मगर रेल की पटरी पर काम चालू रहने से उस दिन ट्रेन नहीं आई
तो इस तरह उस उदास लड़की का सबसे उदास दिन भी एक असफल इंतजार में ही आखिर बीता,
लेकिन उसी दिन उसे पता चला कि उसी शहर की
एक दूसरी रेल की पटरी पर
एक युवक ने आसानी से कटकर अपनी जान दे दी थी,
लोग कहते हैं कि उस युवक ने असफल प्रेम में एक सफल खुदकुशी पूरी कर ली थी,
सबसे उदास दिनों में उस लड़की को इस बात की बड़ी कोफ्त हुआ करती थी कि वह ही आखिर लड़की क्यों है?
क्योंकि उसकी माँ अक्सर उससे कहा करती थी कि
वह अगर लड़का होती तो शायद कर्ज में डूबे अपने किसान पिता को फांसी लगाने से बचा सकती थी,
सबसे उदास दिनों में वह लड़की उदासी में अचानक खिलखिलाकर हँसती भी थी, क्योंकि उसके चेहरे को चंद्रमुखी कहने वाले कवि ने न सिर्फ उसकी देह बल्कि आत्मा को भी नोच और निचोड़ डाला था,
इसीलिए अब उसे अपनी उदासी प्रिय औऱ स्थायी लगती थी
और उसे अपने तन-मन से जुड़ी उपमाओं और अलंकारों से वितृष्णा होती थी,
सबसे उदास दिन सबसे खास दिन नहीं होते
क्योंकि जब हर दिन उदासी भरे ही होते हैं
तो उदासी खास बात नहीं बल्कि दिनचर्या होती है
और सबसे उदास दिनों के बाद उदासी घटने भी तो लगती है ।
समाप्त
कृते -दिलीप कुमार