पीड़ा को समझने के लिए
तुम्हें होना होगा थोड़ा स्त्री
जब तुम स्त्री बन जाओगी
तब देखोगी मन के जिस्म पर
पड़े हुए अनगिनत घाव,
इन घावों से रिसते वक्त में
तुम्हें जिन्दगी दिखाई देगी।
नजर आयेगा तुम्हें एक पुरुष
जो जी रहा है एक खामोशी में
डाले हुए एक मजबूत परदा
लटके हैं इस परदे पर
उसके ख्वाब, कंगूरे बनकर
इन कंगूरों से सजा रहता है एक घर।
स्याह उजाले सी सुबह
रहती हैं उसकी जेबों में
जिसे पकड़े रहता है वो
अपनी उलझी उंगलियों में
थकी हुई यह उंगलियाँ
झगड़ पड़ती हैं अक्सर
अपने मस्तिष्क से,
क्योंकि हृदय ने
छोड़ दिया है साथ
इन सख्त होती हथेलियों का।
जब तुम स्त्री हो जाओगी
तो सुन सकोगी चुप सी आवाजें
जो सिसकती रहती हैं
झूकी हुई कमर में
झुर्रियों भरे चेहरों से।
इनकी आँखें सब देखती हैं लेकिन
बोल नहीं सकती
क्योंकि इनकी आँखों की
काट दी जाती है जिह्वा।
स्त्री को छूने के लिए
तुम्हें बनना होगा,थोड़ा स्त्री
क्योंकि स्त्री बनकर ही
तुम देख पाओगी
शुष्क होते मरूस्थल को
जिसमें नहीं खिलते फूल
इसलिए चित्कार करते हैं मरूस्थल।
जब तुम स्त्री बन जाओगी
तब खिलेंगे फूल
मरूस्थल के गर्भ में
आँगन में किलकारियां होंगी
क्योंकि तुम बन चुकी होंगी
एक स्त्री....
दिव्या शर्मा।