जब उसने मुझे पहली बार मिलने को बुलाया,
मैं रात के अंधेरे में यूं निकला जैसे कोई राही मंजिल को,
जैसे को बेचैन सुकून को ,
जैसे कोई शायर सफर पर,
इसी कोशिश में सुबह की अज़ान सुनी,
और लौट पड़ा वापस अपने बस्ती में,
अब तो ये सफर पर रोजना निकलना होता है
पर आज तक ना मंजिल मिली , ना सुकून ,ना ही कोई नई नज़्म बनने पाई,