मेरा बचपन कितना प्यारा था,
न कोई दुःखो का पिटारा था;
ऊपर खुला नीला आसमाँ और,
नीचे माँ के आँचल का छाया था..!!
पूरा दिन गलिओं में, खेलते रहते थे,
सपनों में, अपने बस खोये से रहते थे;
दुनियादारी की हमें कहाँ समझ थी,
हम तो मस्ती में ही मशरूफ़ रहते थे..!!
मेरा बचपन कितना प्यारा था,
न कोई दुःखो का पिटारा था..!!
चुपके से चुराके, खा जाना ही गुनाह था,
कत्ल और चोरी का हमें कहाँ ख्याल था;
सज़ा के लिये यहाँ, थोड़ी कोई जैल थी,
बस कमरे में दो घंटे की, सजा-ए-कैद थी..!!
मेरा बचपन कितना प्यारा था,
न कोई दुःखो का पिटारा था..!!
गलती के लिए, खटिया से बाँधा जाता था,
माँ और उसके बच्चे का, ये अटूट नाता था;
खटिया से बंधी रस्सी तोड़कर, भाग जाने पे,
माँ के हाथ के, ढेर सारे जूते भी खाता था..!!
मेरा, अम्बर और अनंत का, ऐसा याराना था,
टूट गयी रस्सी मगर, बल का न जाना था;
साथ ही घूमते थे, साथ में ही खाते-पीते थे,
जिंदगी कुछ हम, अलग अंदाज से ही जीते थे..!!