काव्योत्सव-2
"बरसों बाद देखा तुम्हें
कुछ बदले बदले से लगे तुम
यह जानना कुछ मुश्किल ही था
क्यों आए थे पलटकर गुमसुम
रूखी हवाओं के थपेड़ों सर्द
ना कोई दुख ना कोई दर्द
जो सिर्फ समझती थी मुझे गर्द
आज आंखें उसी की है जर्द
भावहींन प्रतिमा का वह कठोर रूप
जो किसी के आंसू की ओस पर बनते धूप
कैसे उसी की नजरों में उभर आए ?
दर्द की लकीरों के साए ?
कभी धुंधली सी रोशनी में गुम हो गए थे लम्हे
जो नीले सागर की गहराई में छुपाना चाहते थे तुम्हें
वह सागर अब तो सूख कर वीरान हो उठे
तुम्हारे प्रेम की अतृप्त आस में रो उठे
जिन आंखों में कभी स्वर्णिम स्वप्न मैं बसाती रही
उन आंखों को अब नींद सी आने लगी
उस रात कर इंतजार मैं हार गई
पर आज तुम आए लो मैं सब कुछ बिसार गई ..
क्योंकि आज भी है मेरे मन पर,वो दर्द के साए
आज भी दुख के बादल ,प्यास से छटपटाए
प्यार पर विह्वल हुई मैं उस घड़ी ..
मेरे आंसुओं की आंच से जब तुमने होंठ जलाए
-कविता जयन्त