# काव्योत्सव 2
??? ग़ज़ल ???
ये दर्द का हिमालय देखो पिघल रहा है |
सैलाब आ गया है दूषण निगल रहा है |
फिर से शिखा खुलेगी चाणक्य फिर उठेगा,
उस नन्द के लिए जो बगिया कुचल रहा है |
क़ुदरत का है करिश्मा या है नज़र का धोखा,
भीगे बिना नदी से कैसे निकल रहा है |
सपने दिखा गया है, सबको सुला गया है,
ख़्वाबों में ही सुनहरी देता फसल रहा है |
भँवरे ये वो नहीं हैं सौन्दर्य के उपासक,
कलियों को अब संभालो मौसम बदल रहा है |
हिम्मत कभी न हारा, थककर कभी न बैठा,
वो कर्म का पुजारी हरदम सफल रहा है |
खुशबू या जल के पीछे भागा नहीं कभी भी,
मन का हिरन हमेशा मेरा सरल रहा है |
वो हमसफ़र है मेरा, हमदर्द, हमनवा है,
वो ज़िंदगी में मेरी बनकर ग़ज़ल रहा है |
समझा दिया था मैंने तुम सावधान रहना,
लेकिन वहीं गिरा वो, अब तक फिसल रहा है |
हालात और मौसम कैसे भी आए लेकिन,
जीवन 'विजय' का यारो हरदम कमल रहा है |
विजय तिवारी, अहमदाबाद
मोबाइल - 9427622862