#काव्योत्सव
सरल प्यार
एक दिन सहसा सूर्य सांझ में उगा,
तुम समीप थे आए ,स्नेहदीप सा जला
क्या कुछ करने हैं शिकवे, या भूली छूटी बातें
मैं एकल निस्तब्ध सोचती, देखती दो निश्छल आंखें
टेसू के फूलों सा रक्तिम , होता था तुम्हारा मुख
आंखों की झिलमिल पंक्ति में ,दिखने लगा था दुख
प्रेम तुम्हें छू गया था शायद, और रूठा था प्यार
तुम्हारे रूठे प्रिय के आगे, सूना था संसार
तुम्हें बताया और जताया, 'सरल बहुत है प्यार'
तब तुम ने आंखें भी उठाई, जिनमें था मनुहार
"यह तो मात्र प्रेम है समझो, कर सकते हो स्वीकार
अहं नहीं होता है इसमें, केवल है झनकार
बिन बोले कुछ कहना सीखो, सीखो शब्द प्रकार
बहुत सरल है प्यार जताना जाओ करो पुकार .."
खुशी खुशी तुम चले गए और टूटा मेरा संसार
आसां था समझा ना तुम्हें ,कि 'सीखो शब्द प्रकार'
बिना कहे भी कहना सीखो ,यह सब कुछ है प्यार .."
मगर आज तक कह ना सकी मैं, रह गई पंथ निहार
मैंने सोचा तुम ही कहोगे, बनकर मुक्ताहार
मगर छोड़ कर चले गए तुम, छूटा अब संसार
जैसे मांझी बीच भंवर में, छोड़ चला पतवार.."
-कविता जयन्त