#काव्योत्सव 2
( सामाजिक)
*लोग हैं यहाँ काँच के*
लोग हैं यहाँ काँच के
ना पारदर्शी...ना पारभासी
टूटने से जिनके
आवाज़ नहीं होती
फिर भी टूटॅने से उनके
बिखर जाती हैं किरचें
लहुलुहान हो जाते हैं
खुद भी
आस-पास वाले भी
राहें हैं यहाँ
ना नुकीली...ना पथरीली
चलने से उन पर
चुभन नहीं होती
फिर भी लगातर चलने से
हो जाते हैं घाव
लहू नहीं निकलता फिर भी
बस,होता है पदार्थ सफेद-सा
वृक्ष हैं यहाँ जहरीले
न पीले न मुरझाए हुए
फिर भी देते है फल
लाल,पीले और मीठे
खाने से जिनको
मरता नहीं कोई
उस मीठे जहर से
मरते भी हैं,जीते भी हैं
दीपक हैं यहाँ जिनमें
ना तेल हैं ना बाती
फिर भी रोशन हैं
टिमटिमाते भी हैं
रोशनी से जिनकी
रहें रोशन नहीं होती
ले जाती हैं इंसान को
एक गहरे गर्त में ।