लघुकथा *सौगंध*
सुनील के कदम तो आगे बढ़ रहे थे परंतु मस्तिष्क भूतकाल में गोते खा रहा था| बड़े भाई रमन के साथ उसका झगड़ा घर-घर में चर्चा का विषय बन चुका था| सुबह-शाम बस अकारण कलह शुरू हो जाती| चिंताग्रस्त पिताजी ने कई बार सुलह करवाने की कोशिश की परंतु झगड़ा जस का तस रहा| तंग आकर उन्होंने कहा था कि मैं भी तुम दोनों का बाप हूँ| सौगंध खाता हूँ कि एक न एक दिन तुम दोनों को कंधे से कंधा मिलाकर चलने पर मजबूर कर दूंगा| यह सब याद करके सुनील का हृदय भयानक टीस से छटपटा उठा| उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि पिताजी की सौगंध यूँ पूरी होगी| विचारों में मग्न उसे पता ही नहीं चला कि पिताजी की शवयात्रा कब शमशान में पहुंच गई।
© विनोद ध्रब्याल राही*
9625966590