लघुकथा मिलन
'जब से होश संभाला है तब से आज तक दिन खेत में ही उदय हुआ है और खेत में ही अस्त| पहले दिन-रात मेहनत करके माँ-बाप का मन हर्षाते रहे फिर देह तोड़कर इन बच्चों के लिए कमाते रहे| अनाज से ज्यादा मिट्टी खाई है| पानी से ज्यादा पसीना पिया है| आज उनकी राह अलग और हमारी अलग?' क्रोध में काँपता हुआ हरिया चारपाई पर बैठकर खांसने लगा|
फिर पीठ पर वही स्पर्श जो आज तक बड़े से बड़े घाव को पल भर में भरता आया है,'मैं हूँ न|'
हरिया की फूली साँस सामान्य होने लगी| खाँसी रूक गई| चारपाई पर लेट गया और उसके सीने पर ढुलक गई वो चुंबकीय स्पर्श देने वाली क्षीण काया| सत्तर वर्ष पूर्व के प्रथम मिलन की भांति| तब दोनों के हृदय की धड़कनों ने रफ्तार पकड़ी थी और आज क्षीण होती हुई शून्य| परम शून्य की ओर|
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विनोद ध्रब्याल राही
बाघनी, काँगड़ा हि प्र
9625966500