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खत्म करके हर जगह से अपना वजूद नए सफर पर प्रस्थान करूंगा मैं...!
मेरी अभिव्यक्ति जिसे लोग कविता या कहानी मान बैठते हैं अक्सर असल में वो मेरे-तुम्हारे बीच 'अन-बोले' संवादों का दस्तावेज़ हैं..सिर्फ!! #सब_तुम्हारा_ही_है
तुम नहीं भी हो फिर भी तुम मेरी धरा बन चुकी हो, तुम मेरा वह आवश्यक आधार हो जिसके आधार से मेरे जीवन को एक दिशा और गति मिली है, आधार जो मुझे प्रेरित करता है, प्रेरणा जिससे मैं बचा पाता हूँ अपने जीवन की निरन्तरता..जब तुम्हारा नहीं होना इतना महत्वपूर्ण है मेरे जीवन में...तो तुम्हारा होना कितना महत्वपूर्ण रहा होगा..
नही जानता इस जीवन का वास्तविक सत्य क्या है, सुख क्या है, क्या स्थितप्रज्ञ होने पर मोह के सभी बंध छूट जाते हैं, क्या समाधि की अवस्था में जीव ब्रह्म से एकाकार होता है!! पर इतना अवश्य जानता हूं कि एकमात्र प्रेम ही यहां वह सिंधु है जो ह्रदय के अथाह सूनेपन को भरकर चिर शांति का आलम्बन देता है।
क्या आप कभी किसी के इतने करीब आए हैं कि कुछ असहनीय सा होने बाद ऐसा लगता है जैसे आप दोनों के बीच की दूरी बढ़ती ही जा रही है ? मुझे लगता है कि दूरी भावनात्मक रूप से शुरू होती है, फिर मानसिक रूप से फिर शारीरिक रूप से...! इसलिए यदि अब ऐसा हो रहा है, तो यह पहले ही हो चुका है......!!
ये क्या अज्ञात है मुझमें....जो दूर उस आकाश में करोड़ों प्रकाशवर्ष दूर, उस मध्यम टिमटिमाते तारे को देखकर छलक जाता हूँ अचानक, इतने स्पंदन के साथ कि..... ठगा सा पाता हूँ मैं खुद को..उससे दूर होकर..जैसे वो मेरा कोई अतरंग हो.. जिसे मैंने खोया ,अपनी भूल से.. सदियों के लिए..!!
जिस दिशा से लौटता है खोया हुआ प्रेम... वही दिशा स्वर्ग को जाती है...!
मैं खुद को दीवार पर लिखते जा रहा हूं, दीवार जो लिख-लिखकर कभी भरेगी नहीं लेकिन मुझे रोज़ ख़ाली करती रहेगी,जब वृद्ध हो जाऊंगा और हाथ कंपकपाने लगेंगे,जब लिख नहीं पाऊंगा.. तब तुम्हें स्मरण करके मन की सारी बातें तुमसे कहा करूँगा,तुम जीवन-संगिनी हो लेकिन तुम मेरे जीवन में नहीं हो।
कुछ दुखों को भूलने का प्रयास कर रहा था,तो कुछ को समेटने में लगा था, परंतु दुःख तो हमारी उम्र की तरह हो चुके थे,जिसके स्वभाव में सिर्फ बढ़ना ही है और मुझे जर्जर और अशक्त रूप देना है.. फिर अचानक एक दिन मैंने पाया कि ,ये दुःख मुझे आत्मज्ञान के अति कठिन मार्ग पर धीरे धीरे ढकेल हैं
मैं पुनः प्रस्फुटित होऊंगा, तुम धरा बन अपना स्नेह देना मुझे, किसी नदी का जल बन सींचना मुझे, बन उष:काल के सूर्य की प्रथम किरण स्निग्ध करती रहना मुझे, मेरे हृदय के प्राणवायु बन जाना और स्पंदित करती रहना मुझे..मेरी धमनियों में बहने वाला रक्त, मेरे अन्तर की ऊर्जा बन जाना तुम।
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