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सीमा भाटिया

सीमा भाटिया

@seemabhatiaymailcom1402


#काव्योत्सव_भावनाप्रधान_कविता

बचपन

बहुत हसीन पल थे जिंदगी के
खाक मुट्ठी में उड़ा देते थे।

मासूमियत से भरा वो बचपन
माँ बाप लाखों दुआ देते थे।

मस्ती भरे पल दोस्तों संग
जिंदगी खुशनुमा बना देते थे।

अब रुख्सत हुए शोखियों के पल
जो हर पल को मज़ा देते थे।

रुबरु हुए जीवन की तलखियों से
वो यादों के पल रूला देते थे।

कोई लौटा दे वो बीते हुए पल
जो जिंदगी को इक वजह देते थे।..सीमा भाटिया

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तेरे ख्याल में

#काव्योत्सव_प्रेमविषयक_कविता

चलते चलते मंजिलों से पहले
किसी अजनबी का यूं हाथ थाम लेना
और फिर मुस्कुरा कर कहना
"चलो दो कदम यूं ही साथ चलते हैं
बनकर हमसफ़र न सही, पर हमख्याल ही सही"...
छोड़ जाता है मन को दुविधा की एक खोह में
जिसके उलझते पुलझते धागे होते रहते हैं
अक्सर गुत्थमगुत्था आपस में ही बेसबब से..

फिर सोच में डूबा हुआ बेबस, बेकल मन
चांदनी रात में उस अधूरे चांद के साथ
निकल पड़ता है ख्वाहिशों का बवंडर लिए हुए मन में।
अवबोधन की तलाश ले गई इक डगर पे,
एक अंजान सफर पर मिटाने की खातिर
उस अमावस्या की काली छाया को
जिसके वजूद ने डंसा मन को हजारों बार..

इक नई नवेली दुल्हन की तरह सजकर
ख्वाबों की पालकी पर होकर सवार
मन के हिंडोले में झूला झूलते झूलते
कब पहुंच गई मैं रचने इक नया संसार
इक ऐसे जहां में, जहां न हों नफरतें, बस
बरसाते हों नेह के बादल, वर्षा एहसासों की
और खिल उठे हजारों फूल ब्रह्मकमल के
बिन छुए ही भीग जाए तन मन संग साजन के
और तृप्त हुए नैनों से छलके चक्षुजल बन के खुशी बारम्बार।.. सीमा भाटिया

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#काव्योत्सव_प्रेरणादायक_कविता

एसिड अटैक

हाँ तुम मर्द कहलाते
क्योंकि तुम परे हो
मानवता के अर्थ से
दरिंदगी से भरे हुए..
तुमको तो मिला है
विरासत में अधिकार
खेलने का कभी भी
हमारी भावनाओं से..
मर्दानगी आहत होती
तुम्हारी सदा से ही
जरा जरा सी बात पे
वंचित रखा गया तुम्हे
सदा स्नेह के पाठ से..
पाना ही सीखा तुमने
मान मनुहार नही तो
सिर्फ अधिकार से।

देह नही जली मेरी
रूह को जला दिया
जिस्म पा नही सके
चेहरा झुलसा दिया..
तड़प रही दिन रात
अस्पताल में पड़े हुए
माँ बाप बिलखते मेरी
हालत को देखते हुए..
जीत सकोगे न कभी
मन तुम दुष्कृत्यों से
भुगतोगे सजा बस
मेरी ही बद्दुआ से..
माफ ना करेगा खुदा
कभी तुम्हे भूले से
नरक में भी न मिलेगी
जगह ऐसे दरिंदे को....सीमा भाटिया

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#काव्योत्सव_प्रेमविषयक_कविता

वो जो मेरे साथ चला

वो जो मेरे साथ चला
वो तो मेरा साया था
ताउम्र की खुशियों का
फख्त इक सरमाया था।

वजूद में ढल गया मेरे
जो अरुणिमा सी बिखेरे
सूर्य की रोशनी बनकर
अंधेरों को दूर हटाया था।

अस्तित्व विहीन जिंदगी का
रहबर बन गया जाने कब
मेरी अधूरी हसरतों को
फिर से जिसने जगाया था।

नाम क्या बताऊँ उसका
वो तो एहसास बन गया
बस महसूस ही किया जो
रूह में मेरी ही समाया था।

मीरा का मोहन कहूँ या
राम हैं वो सीया के, बस
इतना ही जानूँ मैं पगली
वो दुनिया बन आया था।.. सीमा भाटिया

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#काव्योत्सव_भावपूर्ण_कविता

प्रेम में बुद्ध

मैं प्रेम में बुद्ध होना चाहती थी
हां प्रिय! जानती हूं इतना सरल नहीं है यह
वैसे भी मैंने बुद्ध को पढ़ा ही कितना है?
सुना है, बुद्ध ने खुद को हार जाना कबूल किया जीतकर भी
बिल्कुल वैसे ही मैं खुद को समर्पित कर हार जाना चाहती थी।
और उस हार के अद्भुत आनंद में डुबो देना चाहती थी खुद को...

फिर एक दिन बुद्ध ने घर परिवार त्याग दिया था
निर्वाण की प्राप्ति के लिए यह जरूरी भी था
पर, यहां मैं जाने क्यों थोड़ा सा पीछे रह गई?
मैं कहां छोड़ पाई अपने भीतर के उस वजूद को
जो समेटे बैठा था ख्वाहिशों का एक अधूरा बवंडर
मोह, माया, ममता के उस पाश को काटने के चक्कर में
कर लिया लहूलुहान अपने ही हाथों को और फिर
उन्हीं रक्तरंजित हाथों से जब तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ाया
तो छिटक दिया तुमने कुछ इस बेरहमी से
मानो तुम इस चाहत के समर में खुद बुद्ध बन जाना चाहते थे।

और मुझे यशोधरा बन बैठना था सारी उम्र
उस राजमहल के अकेले सूने कोने में
काटते हुए एक अनंत वनवास अकेले ही
जानती हूं कि इस तपती देह को नहीं मिलेगी
अब वो शीतलता, जो तृप्त करेगी अरमां मेरे
अश्रुपूरित नयनों से आखिर मैंने ही विदा किया तुमको
होंठों पर इक स्मित मुस्कान सजाकर
उस राह की ओर, जहां जाने के लिए सब द्वार खुले थे
पर वापसी के लिए एकमात्र द्वार, जो मेरे मन से होकर गुजरता था
हमेशा हमेशा के लिए मैंने खुद ही बंद कर दिया था।...सीमा भाटिया

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#काव्योत्सव_भावनाप्रधान_कविता

मां

धीमी तपती आंच सा
है मां प्यार तुम्हारा
शीत में गर्मी का एहसास
है मां प्यार तुम्हारा..

धूप छांव जिंदगी की
सताती रही बहुत हमेशा
पर कभी न उतरा दिल से
ममत्व का खुमार तुम्हारा..

रेगिस्तान की मरू में
बुझाती है प्यास जो
ऐसा रिमझिम फुहारों सा
मेघों का है राग तुम्हारा..

जीवन पथ की बगिया में
कांटों की शैय्या पर भी
फूलों की खुशबू सा महके
हरदम लाड दुलार तुम्हारा..

धीमी तपती आंच सा
है मां प्यार तुम्हारा
शीत में गर्मी का एहसास
है मां प्यार तुम्हारा.. सीमा भाटिया

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#काव्योत्सव_प्रेम_कविता

सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।
सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।।

प्रीत प्यार से सूना यह मन
मोहे ना सुहावै यह जोबन
पीया बैरी भये हैं बिदेसवा
फिर कैसे रोए ना बिरहन।

सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।
सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।।

होली के ये मस्त रंग सुहाने
भर ना सके दिल के वीराने
तू ही बता कौन रंगेगा अबके
शीशों से सजी मोरी पहरन।

सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।
सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।।

उल्लास की यह मधुरिम बेला
पर रोए काहे यह दिल अकेला
साजन की पतिया लागै झूठी
मिटा सके ना मन की उलझन।

सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।
सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।।

तू ही बता आएंगे ना सखी
चिट्ठी से उम्मीद सी दिखी
अब के बरस ना रुलाएंगे
देकर झूठे दिलासे साजन।

सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।
सखी री मोहे ना भावै फाल्गुन।।....।सीमा भाटिया

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#काव्योत्सव_भावनाप्रधान_कविता

#मुझे_भी_दर्द_होता_है

जी चाहता कभी कभी
तोड़ दूँ सारी वर्जनाएँ
और चिल्ला कर कहूँ
हाँ ,मैं भी तो इंसान हूँ
मुझे भी दर्द होता है...

क्षमता है मेरी जरूर
सहने की, परन्तु फिर
सीमा भी तो होती हैं
हर एक एहसास की
मुझे भी दर्द होता है...

मानुष हूँ साधारण सा
कोई देव योनि से नही
ना कोई पाषाण हूँ मैं
सहता रहे जो ठोकरें
मुझे भी दर्द होता है...

आवाज रुंद जाती है क्यों
जब जब इंतहा होती है
प्रताड़ना और अवहेलना
खामोश कर देते हैं क्यों
मुझे भी दर्द होता है....सीमा भाटिया

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#काव्योदय_भावनाप्रधान_कविता

#पचास_की_दहलीज_पार_करती_औरतें

ये पचास की दहलीज पार करती औरतें
वाकई बहुत विचित्र होती हैं,
एकदम समझ से परे..

कई बार लगता मानों समेटे हों
कितने गहरे राज अपने भीतर
बिल्कुल सीप में मोती के मानिंद..

दबाए रखती हैं कितने एहसास
चेहरे पर बढ़ती झुर्रियों में और
फिर उन्हें में मेकअप की परत में
छुपाकर मुस्कुरा देती हैं, मानो
कोई बहुत बड़ी जंग जीत ली हो..

हासिल हुई खुशियों के दामन में
समेट लेती हैं कितने ही अश्क
जो बरसों बहते रहे नैनों से
वजह बेवजह कहीं भी, कभी भी..

आंगन की अर्गनी पे टाँगती हैं
चुनर के साथ साथ अपने सोए अरमाँ
जानती है वह कि ओढ़नी के साथ ही
बँधी रहेंगी ये अधूरी ख्वाहिशें भी..

स्वेटर के फंदों में उलझ कर अक्सर
सुलझाने लगती हैं जीवन की समस्याओं को
रंग बिरंगे फूल पत्तियों को उकेरती हुई
अपने ही मनोभावों को नया रूप देने लगती हैं..

कमजोर पड़ती याद्दाश्त के चलते
अक्सर फ्रिज में रखने चली जाती हैं
कुछ धुले हुए कपड़े अलमारी समझ
जाने क्यों जमा देना चाहती है वह
उनके साथ जुड़ी हुए अपनी यादों को..

अक्सर किटी पार्टियों में कहकहों में
उड़ा देती हैं अपने दर्द को बेसबब
जिंदगी के इस सांध्यकाल को जैसे
बाँधकर रख लेना चाहती हों कुछ खुशनुमा पलों के साथ..

पर यहीं पचास की दहलीज पार करती औरतें
वक्त की इस धुंधलाती चादर से निकाल पैर
अक्सर लड़ जाती हैं खुद के मिटते वजूद की खातिर
अब परवाह नहीं करती उन तानों और उलाहनों का
जिन्हें सुनते सहते जीवन के पाँच दशक बिता दिए..

नहीं घबराती अब रेल बसों की बढ़ती भीड़ से
क्योंकि जीवन के संघर्षों से जिस्म को ढाल चुकी होती
अहिल्या की तरह एक प्रस्तर प्रतिमा में
जिन पर घूरती वासनामय निगाहें नहीं टिक पाती..

तन्हाइयों से गहरा नाता जोड़ने की कुवद
शायद शारीरिक परिवर्तन को स्वीकार करते करते
भीड़भाड़ वाले माहौल से कतराने लगती हैं
क्योंकि ये बदलाव उनके अंतस को शून्य में धकेल देते हैं कभी कभी..

घर, परिवार, समाज से इतर भी जीना है
यह बात जाने कब, कैसे मन के भीतर पैठ गई
इसी लिए तो
अब अपने अस्तित्व की पहचान की खातिर
ढूँढने लगती हैं कोई नई राह, मंजिल का जिसकी कोई अता पता नहीं..सीमा भाटिया

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#काव्योत्सव_प्रेरणादायक_कविता

कंजक पूजन

श्रद्धा के फूल
पूजा के दीप
आरती की थाली
भक्ति के गीत
काफी हैं बस
सिर्फ नवरात्र में
पूजन के लिए?..

ये नौ दिन समर्पित
सम्पूर्ण नारी जाति को
कोख से ही जो मानी गई
तिरस्कृत और परिष्कृत
जन्म से ही उपेक्षित
बहुत खुशी से बिठाते हो
जिसको कंजक पूजन में..

अपमान की वेदी पे चढ़ी
वासना की आग में बलि
जिस्म मात्र ही जो है रही
बेटी,बहन को भी भूले
जो काम की पिपासा में
बहुत खुशी से बिठाते हो
जिसको कंजक पूजन में..

दहेज, अशिक्षा और मारपीट
यह सब भाग्य में लिखा जो
जब यही नहीं बदल सकती
तो काहे की देवीस्वरूपा वो
बहुत खुशी से बिठाते हो
जिसको कंजक पूजन में...

नौ दिनों तक पूजकर उसको
पाप अपने क्या मिटा सकते?
क्यों नहीं देकर बराबरी सदा
सम्मान उसे तुम दिला सकते
बहुत खुशी से बिठाते हो
जिसको कंजक पूजन में..

अब तो बताओ
श्रद्धा के फूल
पूजा के दीप
आरती की थाली
भक्ति के गीत
काफी हैं बस
सिर्फ नवरात्र में
पूजन के लिए?....सीमा भाटिया

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