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Rama Sharma Manavi

Rama Sharma Manavi Matrubharti Verified

@ramasharma6216
(346)

सुनते थे दिल से दिल को राह होती है,
पर आजकल आशिकी बेपरवाह होती है,
दो दिनी परिचय में इजहारे इश्क होता है,
गुलाब देकर आई लव यू बोला जाता है,
फिर चॉकलेट, टैडी बियर उपहार होता है,
कुछ दिन तो मुहब्बत तूफानी रहता है,
घूमना-फिरना,छिप के मिलना चलता है,
बड़े शहरों में लिव इन भी इक शगूफा है,
कुछ शादी के अंजाम तक भी पहुंचता है,
वरना जल्दी ही ब्रेकअप का ड्रामा होता है,
कुछ दिन ये आशिक़ मायूस रहते हैं,
शीघ्र ही नया वेलेंटाइन खोज लेते हैं।
चलन जमाने के हिसाब से बदलता है,
आजकल प्यार कहाँ ताउम्र ठहरता है।

रमा शर्मा 'मानवी'
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https://youtu.be/f3a5tGyeM40
इस ट्रेलर को देखकर एक उभरते हुए कलाकार प्रत्यूष शर्मा का उत्साहवर्धन करें।मेरा बेटा।रमा शर्मा 'मानवी'धन्यवाद।

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मेरे बेटे,

एक आशा,एक स्वप्न, एक ख्वाहिश,
जो शेष है मेरी जिंदगी में,
सफलता के आकाश में,
चमकोगे सूरज-चाँद की तरह,
तुम्हारा सौम्य-सरल व्यक्तित्व,
मोह लेगा मन को मुक्ता की मानिंद,
कर देगा शांत मेरे व्यथित हृदय को।
मोड़ दोगे तुम उन उंगलियों को,
जो उठती रहती हैं मेरी परवरिश पर,
भूल जाऊँगी अपनी समस्त विफलताएं,
जब सफल कर दोगे मेरे मातृत्व को,
भर उठेंगे मेरे नैन ख़ुशी के अश्रु से,
कर दोगे गर्वोन्नत मेरा मस्तक,
औऱ मैं कह सकूँगी शान से
कि, देखो..मेरा बेटा है वह।

रमा शर्मा 'मानवी'
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हम भी कभी मासूम हुआ करते थे,
ठोकरों ने जमाने के पत्थर बना दिया।
जिस जुबान से बस फूल झड़ा करते थे,
वक़्त की धार ने तेज खँजर बना दिया।
मेरे वजूद को जब सबने मिटाना चाहा,
क्या करते?खुद को हमने नश्तर बना दिया।
कब तक आहें भरते औऱ दुहाई देते,
हर दर्द को खुशनुमा मंज़र बना दिया।
अब कोई भी कंकड़ असर नहीं करता,
अपने दिल में मैंने समंदर बना दिया।
जरूरत नहीं लोगों की मकान में मेरे,
यादों का गुलिस्तां मन के अंदर बना दिया।

रमा शर्मा 'मानवी'
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ऐ परिंदों,मनचाहे आसमान में उड़ो,
छू लो अनन्त ,असीम ऊंचाइयों को,
पा लो सर्वोच्च,मनोवांछित हर लक्ष्य,
पर अपनी ज़मीन से नाता न तोड़ो,
जब तुम्हारे पर थक जाएं उड़ते-उड़ते,
अपनी ज़मीन पर जरा आराम करो,
माँ की ममता, पिता का आशीष लेकर,
पुनः उड़ जाओ एक नए क्षितिज की ओर।

रमा शर्मा 'मानवी'
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खत्म हो जाती हैं बातें एक उम्र के बाद।
बेहिसाब स्वप्न, बेलगाम ख्वाहिशें,
उन्मुक्त खिलखिलाहट,अनवरत बातें।
आकांक्षाओं का विस्तृत आसमान
पंख पसारे बिंदास,बेपरवाह उड़ान।
जिम्मेदारियों,कर्तव्यों के तले,
दबने लगते हैं हम ज्यों -ज्यों,
विस्मृत करने लगते हैं खुद को,
अपनी ख्वाहिशों को त्यों- त्यों।
कुछ कहने-करने में डरने लगते हैं,
स्वयं को ही हमेशा छलने लगते हैं।
धीरे- धीरे हम थकने लगते हैं,
शब्दकोश में शब्द चुकने लगते हैं।
औऱ एक दिन हम हो जाते हैं मौन,
अख्तियार कर लेते हैं ख़ामोशी,
क्योंकि,ख़त्म हो जाती हैं बातें,
उम्र के आखिरी दौर में।।

रमा शर्मा ' मानवी'
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अब अनमोल नहीं राखी के धागे भी।
सोने,चांदी,नकली हीरे,मोतियों से बने,
बाजार में ढेरों उपलब्ध सस्ते-महंगे,
भाई-बहन की आर्थिक स्थिति को दर्शाते,
पाने और देने वाले की हैसियत को बताते,
प्रदत्त उपहारों की कीमत का अंदाजा लगाते,
रिश्तों को महज औपचारिकतापूर्ण पाते,
व्यस्त जिंदगी में उनसे मिलने से कतराते,
तीज-त्योहारों को बस रस्म सा निभाते,
न उत्साह मन में, न रँग जिंदगी में,
बोझिल से रिश्तों का मोल नहीं आगे भी,
लिफ़ाफ़े में बन्द बेमोल राखी के धागे भी।।

रमा शर्मा 'मानवी'
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माता-पिता,पति,बेटे के आधार पर,
मत करो मेरा भाग्य निर्धारित।
ये लकीरें हैं सिर्फ़ मेरे हाथों की,
इन्हें मुझपर ही रहने दो आधारित।
नहीं माननी हैं मेरी बातें, मत मानो,
नहीं सुनने हैं मेरे विचार, मत सुनो।
पर क्यों थोपते हो मुझपर हर बार,
अपने ही विचार,रिवाज,संस्कार।
ठोकरें खाने दो,गिरने,सम्हलने दो,
मत करो हर कदम पर मेरा संरक्षण।
मुझे अपने कर्म खुद से ही करने दो,
नहीं चाहिए कभी,कोई भी आरक्षण।
मत बनाओ मुझे महानता की देवी,
बस मुझे रहने दो साधारण मानवी।

रमा शर्मा 'मानवी'
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चला जाता है जब कोई हमें छोड़कर,
नहीं रोक पाते उसे जाने से किसी विधि,
बस रख लेते हैं संभालकर उसकी निशानियां।
उनके पहने हुए कपड़ों में उनकी खुशबू,
उनकी घड़ी,मोबाईल,जूतों,किताबों में,
आलमारी के खानों में,घर के हर कोनों में,
महसूस करते हैं उनके होने का अहसास।
जबतब खोजते हैं उन तमाम यादों को,
मस्तिष्क की भूलभुलैया गलियों में भटकते।
छिपाकर रखते हैं बेशकीमती खजाने सा,
कहीं छीन न ले वक़्त का बेरहम लुटेरा,
उन अपनों की तरह उनकी निशानियां भी,
अक्सर सहलाते हैं जिन्हें उनकी याद में,
औऱ रख लेते हैं संभालकर वे निशानियां।

रमा शर्मा 'मानवी'
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विवाहोपरांत परिवर्तित नहीं होता,
सिर्फ हमारा उपनाम,जीवन,
बदल दिया जाता है बहुत कुछ,
वेश,परिवेश,ख्वाहिशें, स्वप्न।
नहीं अहमियत रखते हमारे विचार,
नहीं निभा सकते मायके के संस्कार,
नहीं बना सकते वहाँ के पकवान,
मूल्यहीन हैं वहाँ से मिले हर सामान।
मायके जाते हैं हिदायतों के साथ,
कर्ज,फर्ज औऱ रवायतों की बात।
कुछ मोहलत अहसान की तरह,
भेजा जाता है मेहमान की तरह।
दी जाती है जिसे अपनाने की दुहाई,
वहाँ रहते हैं आखिरी सांस तक पराई।
बदल जाती हैं सारी प्राथमिकताएं,
रीति-रिवाज,सारी मान्यताएँ,
खींच दी जाती हैं तमाम रेखाएं,
जिन्हें निभाना है खामोश सर झुकाए।
क्यों सारा परिवर्तन सिर्फ़ हमारे लिए?
नहीं, अब औऱ नहीं स्वीकार्य है,
द्विपक्षीय सामंजस्य अनिवार्य है।
समानता के अधिकार का स्वर है,
यह विचार अब पूर्णतः मुखर है।
नहीं करनी है हमें प्रतिद्वंदिता,
बस चाहिए समानता,सहभागिता।।

रमा शर्मा 'मानवी'
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