हम भी कभी मासूम हुआ करते थे,
ठोकरों ने जमाने के पत्थर बना दिया।
जिस जुबान से बस फूल झड़ा करते थे,
वक़्त की धार ने तेज खँजर बना दिया।
मेरे वजूद को जब सबने मिटाना चाहा,
क्या करते?खुद को हमने नश्तर बना दिया।
कब तक आहें भरते औऱ दुहाई देते,
हर दर्द को खुशनुमा मंज़र बना दिया।
अब कोई भी कंकड़ असर नहीं करता,
अपने दिल में मैंने समंदर बना दिया।
जरूरत नहीं लोगों की मकान में मेरे,
यादों का गुलिस्तां मन के अंदर बना दिया।
रमा शर्मा 'मानवी'
***************