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कैसी यह लाचारी है सच पर पहरेदारी है कोई न भूखा सो पाए सबकी जिम्मेदारी है लवलेश
एक ग़ज़ल खिलखिलाता खेलता बचपन नहीं है शहर में अब कोई भी उपवन नहीं है आधुनिक होने लगी शब्दावली भी 'हाय' 'हैलो' है मगर वंदन नहीं है धूप कैसे खेल पाएगी यहाँ पर जब किसी के घर में ही आँगन नहीं है आदमी ने खूब कर ली है तरक्की पर दिलों में अब वो अपनापन नहीं है नीम पीपल आम पाकड़ झूमते थे पहले जैसा अब कहीं सावन नहीं है जाने कैसी चल पड़ी हैं ये हवाएँ अब किसी मौसम में परिवर्तन नहीं है हर तरह की दूरियाँ अब मिट चुकी हैं दिल में फिर भी प्यार की धड़कन नहीं है लवलेश दत्त बरेली
सरल नहीं है सरल होना। #सरल
एक ग़ज़ल आपकी प्रतिक्रिया हेतु हर तरफ जल रहा एक घर है रोशनी का ये कैसा सफ़र है झोपड़ी खेत कैसे बचेंगे गाँव पर तो शहर की नज़र है रोज़ बनती नयी योजना पर भूख के सामने बेअसर है बढ़ गयी रात की कालिमा भी चाँदनी को अँधेरे का डर है घर से निकलें, मगर कैसे निकलें हादसों से भरी हर डगर है प्यार के गीत की है जरूरत हो रहा सुर घृणा का प्रखर है बढ़ रही है अंधेरे की सत्ता डूबता जा रहा भास्कर है लवलेश दत्त बरेली
ग़ज़ल आदमी से आदमी का प्यार अब दिखता नहीं त्याग करुणा और पर उपकार अब दिखता नहीं भूख के तो दिख रहे हैं हर तरफ़ बर्तन नये रोटियाें का पर सही आकार अब दिखता नहीं उठ रही हर रोज़ इक दीवार आँगन में यहाँ खिलखिलाता वो बड़ा परिवार अब दिखता नहीं कल तलक़ तो शहर भर में था बहुत चर्चित मगर वो तुम्हारे नाम का अख़बार अब दिखता नहीं रोज़ आधी रात तक सड़कों पे फैला था कभी वक़्त की आँधी में वो बाज़ार अब दिखता नहीं लवलेश दत्त बरेली
ग़ज़ल नहीं वो हवाओं से डर जाने वाले जो हैं बनके खुशबू बिखर जाने वाले वो मटकी बरोसी दही दूध लस्सी मिलेगा कहाँ ऐ शहर जाने वाले कहाँ उनकी पीड़ा को समझा है कोई जो हैं गाँव को छोड़कर जाने वाले रहे ही नहीं लोग वो अब शहर में मुसीबत में सबकी ठहर जाने वाले गुलाबों-सरीखे मिले लोग हमको महकते-महकते बिखर जाने वाले कलम है तेरे हाथ में ऐ 'पवन' जब तो लिख शे'र दिल में उतर जाने वाले लवलेश दत्त 'पवन' बरेली
उसके जाने के बाद और तो कुछ नहीं हुआ उसके जाने के बाद... एक दर्द सीने में उठा और वहीं बस गया। कुछ आँसू आँख में आए और वहीं रुक गए। और तो कुछ नहीं हुआ उसके जाने के बाद। लवलेश दत्त बरेली
ग़ज़ल पीर सदियों से सँजोए होंगे लोग जो फूट के रोए होंगे अर्थ हर बार नया खुलता है शब्द किसने यूँ पिरोए होंगे फिर वही टीस उठी सीने में वो मेरी याद में खोए होंगे देखकर ठूँठ ये आभास हुआ उम्र-भर बोझ ही ढोए होंगे उग रही है जो फ़सल आज 'पवन' बीज इसके ही तो बोए होंगे लवलेश दत्त 'पवन' बरेली
ग़ज़ल ऐसे भी सम्बन्ध निभाना पड़ता है अनचाहे हँसना मुसकाना पड़ता है नारी होना इतना भी आसान नहीं हिस्सों हिस्सों में बँट जाना पड़ता है जीवन एक अजब सा मेला है जिसमें जाने क्या क्या खोना पाना पड़ता है यह दुनिया वो नुक्क्ड़ है जिसपर सबको रोज़ नया इक खेल दिखाना पड़ता है पाँवों में तब वो रफ्तार नहीं होती जब खाली हाथों घर जाना पड़ता है लवलेश दत्त बरेली
नहीं जुड़ रहा है कफ़न आदमी को मगर पत्थरों पर तो मखमल चढ़ा है (लवलेश) #मृत
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