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“दिन का गांव” वैसे तो गांव का हर वक्त नीरस ही होता है, पर दिन का गांव कुछ ज्यादा ही बेरंग होता है , कोई उम्मीद न बचती और न ही कोई निश्छल हँसी रहती है दिन के गांव में, गांव के लड़के, गांव का दूध गांव की फसल,गांव की सुंदरता, सब तो दिन में शहर चले जाते हैं, शहरों की शान और मेयार बढ़ाने, दिन के गाँव में राह तकने के अलावा बचता ही क्या है? दिन का गांव सब कुछ उम्मीद के साथ शहर भेजकर, अपनी उम्मीदों की वापसी की राह तकता रहता है , कि सांझ ढले शहर से जो आएंगे , वो उनके हिस्से की खुशियां और सपने भी लेकर आएंगे, गांव अपनी सँजोई हुई सबसे कीमती चीजें, एक -एक कर शहरों में भेज देता है, ताकि शहर से मिली हुई हर एक चीज, फिर से वह सहेज कर रख सके, गांव अगर शहर बनने की फिराक में है तो, गांव को अपने हिस्से का गंवईपन छोड़ना ही होगा, गांव को तब अपनानी होगी, शहरों सी क्रूरता,मतलबीपन और बदहवासी भी, और उसे छोड़ना होगी मानवता, रिश्तों की मिठास और सामंजस्य, गांव जानता है कि उसे भी देर-सबेर शहर बन जाना है, तो फिर गांव ही गांव बन कर क्यों रहे ? सदियों से गांव से जो कोई भी, उम्मीदें और सपने लेकर शहर गया, वह तभी तक गांव लौट –लौटकर आता रहा, जब तक उसके सपने सच नहीं हुए, जब सपने सच हो गए तो गांव से शहर गया हुआ गांव, फिर लौटकर गांव नहीं आया, क्योंकि गांव में देखे गए सपने , गांव में न जाने क्यों सच नहीं होते ? गांव से सब कुछ जाता ही तो है, गांव में रह जाती है सिर्फ बेबसी, और अंतहीन दुखों की पोटली, वैसे तो आजकल गाँव भी शहरों की तरह ही योजनाओं, इश्तहार और सरकारी कर्मचारियों से लबरेज हैं, पर फिर भी न जाने क्यों गांव उदास रहा करता है ? क्योंकि गांव रोशनी की चमक से शहर जैसा तो हो गया, पर गांव के भीतर ही अब भी गांव और पुराना गांव दोनों बसता है। समाप्त कृते -दिलीप कुमार
1- “ये दिन जो इतने उदास हैं” क्यों मिलता कहीं न चैन है ये पता नहीं दिन या रैन है ये धूल- धूसरित पथरीले रस्ते पनियाई आँखों में आंसू हँसते अब भी जाने किसकी आस है ? ये दिन जो इतने उदास हैं, कोई हूक सी जो रहती है उठती कोई पीर आत्मा है क्यों सहती कोई राह न मिलती इससे निजात की तुमने कभी न इस पर कोई बात की क्यों इतना तुम्हे अविश्वास है ? ये दिन जो इतने उदास हैं, तुमने चुनी आखिर इक नई राह कभी वहाँ तक न पहुंचे शायद मेरी आह मेरा समर्पण भी न ले सका तेरे मन की थाह अब शायद हो पूरी तुम्हारे मन की चाह जो भी तुमने चुना क्या वो खास है ? ये दिन जो इतने उदास हैं तेरे प्रेम में मैंने सब कुछ खोया, तुम्हे अंदाजा भी है मैं कितना रोया, ये समय का था कैसा क्रूर छल, जीने का मेरे न रहा अब कोई संबल सिर्फ वेदना का ही मन में वास है ये दिन जो इतने उदास हैं, न जाने कब छंटेगी ये दुख की बदली अब बची कोई उम्मीद भी अगली तेरा मोह -नेह कभी क्या मुझसे छूटेगा ? या यूं ही तपते -दहते जीवन बीतेगा यही प्रेम का अंतहीन वनवास है ये दिन जो इतने उदास हैं ।। समाप्त कृते -दिलीप कुमार
“सबसे उदास दिन” सबसे उदास दिनों में भी वह लडक़ी कभी-कभी यूँ ही मुस्काती थी, क्योंकि उसे रह-रह कर याद आ जाता था कि दुनिया जिसे अब भी लड़की ही समझती है वह सचमुच कभी हँसती-मुस्कराती खिलदंड लड़की हुआ करती थी, सबसे उदास दिनों में भी उस लड़की को वह लड़का रह- रह कर याद आता था जो अक्सर कहा करता था कि मैं तुम्हारे लिये चांद-तारे भी तोड़ लाऊंगा और तुम्हे पाने के लिए आकाश-पाताल एक कर दूंगा ये और बात है कि इसी शहर में रह रहे उस लड़के ने अब उससे कोई वास्ता नहीं रखा, सबसे उदास दिनों में भी वही लड़की, खुद की उदासी से उकताकर बनाव-श्रंगार करके अकारण खुद को निहार भी लेती थी तभी उसे एक टीस उठती थी कि उसकी जिंदगी तो महज एक चलती चाकी है जिसे जीवन जीना नहीं बल्कि काटना ही है , सबसे उदास दिनों में उस लड़की के घरवालों ने ये भी उम्मीद की थी कि वह उदास लड़की कहीं मर-खप जाती तो बेहतर ही होता क्योंकि उन्हें कहीं जवाब न देना पड़े कि लड़की का घर आखिर क्यों नहीं बस पा रहा है ? सबसे उदास दिनों में भी वही लड़की जो अपनी उदासी से जूझते -जूझते और अपने से हारकर मरने गई थी ट्रेन से कटकर मगर रेल की पटरी पर काम चालू रहने से उस दिन ट्रेन नहीं आई तो इस तरह उस उदास लड़की का सबसे उदास दिन भी एक असफल इंतजार में ही आखिर बीता, लेकिन उसी दिन उसे पता चला कि उसी शहर की एक दूसरी रेल की पटरी पर एक युवक ने आसानी से कटकर अपनी जान दे दी थी, लोग कहते हैं कि उस युवक ने असफल प्रेम में एक सफल खुदकुशी पूरी कर ली थी, सबसे उदास दिनों में उस लड़की को इस बात की बड़ी कोफ्त हुआ करती थी कि वह ही आखिर लड़की क्यों है? क्योंकि उसकी माँ अक्सर उससे कहा करती थी कि वह अगर लड़का होती तो शायद कर्ज में डूबे अपने किसान पिता को फांसी लगाने से बचा सकती थी, सबसे उदास दिनों में वह लड़की उदासी में अचानक खिलखिलाकर हँसती भी थी, क्योंकि उसके चेहरे को चंद्रमुखी कहने वाले कवि ने न सिर्फ उसकी देह बल्कि आत्मा को भी नोच और निचोड़ डाला था, इसीलिए अब उसे अपनी उदासी प्रिय औऱ स्थायी लगती थी और उसे अपने तन-मन से जुड़ी उपमाओं और अलंकारों से वितृष्णा होती थी, सबसे उदास दिन सबसे खास दिन नहीं होते क्योंकि जब हर दिन उदासी भरे ही होते हैं तो उदासी खास बात नहीं बल्कि दिनचर्या होती है और सबसे उदास दिनों के बाद उदासी घटने भी तो लगती है । समाप्त कृते -दिलीप कुमार
मेला ऑन ठेला ,(व्यंग्य) "सारी बीच नारी है ,या नारी बीच सारी सारी की ही नारी है,या नारी ही की सारी" जी नहीं ये किसी अलंकार को पता लगाने की दुविधा नहीं है ,बल्कि ये नजीर और नजरनवाज नजारा फिलहाल लिटरेरी मेले का है ।मेले में ठेला है ,ये ठेले पर मेला है ।बकौल शायर "नजर नवाज नजारा ना बदल जाये कहीं, जरा सी बात है ,मुँह से ना निकल जाए कहीं "। एक बहुत मशहूर ललित निबंध है "ठेले पर हिमालय" जिसमें लेखक ठेले पर लदी हुई बर्फ देखकर खुद को तसल्ली देता है कि उसने हिमालय की बर्फ का दीदार करने के बाद खुद पर हिमालय में होना महसूस किया था।ठीक वैसे ही कल जब ठेले पर चाय पीने गया तो एक वीर रस के कवि मिल गए वो वीर रस की कविता सुना रहे थे ।उनकी कविता सुनकर मुझे हाल ही में हुए एक साहित्यिक मेले की याद आ गयी जहाँ लोगों को राजनीति से धकियाये एक स्टार कवि की कविता सुनने को मिल रही थी ,मगर खड़े ही खड़े,।अगर कोई कुर्सी पर बैठना चाहता है तो उसे कॉफी का आर्डर देना पड़ेगा ।जो काफी का आर्डर दिए बिना कविता सुन रहा था ,उसे लोग ऐसी नजरों से देख रहे थे जैसे बिना बुलाया बाराती शादी में सबसे आगे आकर खाना खा रहा हो और सबसे स्टाइल में फोटो भी खिंचवा रहा हो ।वैसे ये लिटरेरी मेले भी बड़े जबरदस्त किस्म के होते हैं जिनकी तुलना हिंदुस्तान की शादियों के मुहावरों से की जा सकती है कि " जो शादी के लड्डू खाये वो भी पछताए और जो लड्डू ना खाए वो भी पछताए"। बड़े बुजुर्ग कह गए हैं कि लड्डू खाकर ही पछताना चाहिए ,क्योंकि "कंगाल से जंजाल भला"।अगर कोई किसी सरकारी विभाग की खरीद फरोख्त से जुड़ा लेखक नहीं है उसके मेले में दुबारा बुलाये जाने की प्रायिकता ना के बराबर होती है ,और यदि कोई किसी कालेज के हिंदी विभाग का विभागाध्यक्ष है,या लाइब्रेरी से जुड़ा साहित्यकार है तो उसके उस मेले में और तकरीबन हर मेले में बुलाये जाने की संभावना सापेक्षतावाद के सिद्धांत की तरह स्थायी है ।ये जिन चैंनलों से प्रायोजित होते हैं ,वहां साल दर साल असहिष्णुता की बहसें चलती रहती हैं ,लेकिन इन मंचों पर एडिट करने की सुविधा ना होने के कारण यदि कोई पलट कर प्रस्तोता से सवाल कर ले तो फिर प्रस्तोता तुरंत और स्थ्ययी रूप से असहिष्णु हो जाती हैं।पिछले साल जावेद अख्तर ने ऐसे ही प्रस्तोता से उसी के मंच पर प्रस्तोता को असहिष्णु होने का ताना दिया तो वो बिलबला उठीं ।जावेद अख्तर दूरदर्शी आदमी थे ,लगे हाथ पूछ भी लिये थे कि "अगले साल हमको बुलाओगी या नहीं "। अब लोगों को ये कहाँ पता था असहिष्णुता के झंडा बरदार जावेद अख्तर के साथ खुद अगले साल असहिष्णुता हो जायेगी और मेले से पत्ता गुल हो जायेगा।अब वजह जो भी हो दिल्ली की सर्दी में डॉ ऑर्थो तेल की असफलता या प्रस्तोता से पलट कर सवाल पूछने की असहिष्णुता रही हो इस बार जावेद अख्तर इस मेले से बाहर रहे और उनकी जगह शायरी में चौके छक्के वाले हजरात तशरीफ़ लाये लेकिन वक्त ने उनको हिट विकट कर रखा है सो तेवर नदारद ही रहे।इन मेलों की सबसे अनूठी बात ये है कि ये होते तो साहित्यकारों के नाम पर हैं मगर सिनेमा वाले इसमें खूब बुलाये जाते हैं ।मंच पर एक घण्टे का साहित्यकार का सेशन होता है जिसमें शुरू के दस मिनट तो साहित्यकार की महानता बताने में निकल जाते हैं ,और जब चर्चा परवान चढ़ती है तो प्रस्तोता एक घंटे की परिचर्चा को आधे घण्टे में निपटा देता है ।क्योंकि 15 मिनट के रेडियो जॉकी के शो को एक घंटे का एक्सटेंशन जो देना होता है ।जब हिंदी साहित्य के गम्भीर साहित्य की चर्चा के घण्टों को काटकर पुरुष प्रस्तोता अपनी महिला रेडियो जॉकी फ्रेंड की सुंदरता के ड्रेस सेंस,रूप लावण्य और अपने कॉफी के अनुभवों को साहित्य प्रेमियों के समक्ष रसास्वादन करता है तो साहित्य और कलाएं जमीन पर लोटती नजर आती हैं। कॉफी, वेफर्स के ठेलों के बीच लगे इन मेलों के बहिष्कार के भी चर्चे खूब होते हैं ।पहले तो लोग हँस हँस कर गर्व से इन मेलों में जाने की फोटो फेसबुक पर पोस्ट करते हैं और जब तारीख पास आते ही आयोजकों से फोन करके पूछते हैं कि "क्या पत्नी और बच्चों को भी साथ ला सकते हैं उनका भी किराया मिलेगा या नहीं ,होटल में अलग कमरा मिलेगा ना "। और उधर से जब जवाब मिलता है कि" सभी लेखकों के ठहरने की व्यवस्था एक ही रुम में है और सभी लेखिकाओं के एक साथ ठहरने की व्यवस्था दूसरे कमरे में एक साथ है सो नो सेपरेट रुम फॉर लेखक,और रहा सवाल किराये का तो वो हम अभी नहीं दे पाएंगे ,आप टिकट के बिल लगा दें ,सब मार्च में ही क्लियर हो पायेगा"। मुफ्त घूमने की संभावनाओं पर तुषारपात और इस टके से जवाब के बाद उस लेखक को बोध ज्ञान प्राप्त होता है और वो कहता है कि "मुझे पता लगा है कि इस मेले के आयोजकों के सम्बन्ध फासिस्ट और पूंजीपतियों से है सो मैं इस मेले का बहिष्कार करता हूँ "। ये और बात है कि होटल और किराये के बिल का भुगतान अगर तुरंत हो जाता तो वो शायद श्रम आधारित व्यवस्था से मान ली जाती। एक साहित्यिक दम्पति ने तो अपना सेकेंड हनीमून तक इस सबमें प्लान कर डाला था मगर हाय रे जमाने । वैसे इन मेलों को कुछ लोग बहुत सीरियसली भी लेते हैं ,उनके लिये साहित्य साधना के केंद्र बिंदु जैसे हैं ये मेले ,उनमें हैं अप्रवासी साहित्यकार जो अपना,धन,समय,ऊर्जा की परवाह नहीं करते और साहित्य के सतत उन्नयन के लिये ऐसे दौड़े चले आते हैं जैसे राम की अयोध्या वापसी पर भरत स्वागत को दौड़ पड़े थे "आया है जो साहित्यकार उड़न खटोले पे हिंदी आज निछावर है उस बेटे अलबेले पे " ये लोग चंद रोज में हमें हिंदी की तासीर बताकर चल देंगे ,तब तक हिंदी के मेलों के पहलवान अपने अपने दांव पेंच को शान चढ़ा रहे हैं ।इन मेलों की नूरा कुश्ती में पैरोडी भी खूब चर्चा में हैं जैसे "मुफ्तखोरी की शायरी अब तो महत्वहीन हुई तेरे जहर भरे बोली से ये फिजां इतनी गमगीन हुई " समाप्त ? कृते दिलीप कुमार
#गांधीगीरी "एक आँख के बदले एक आँख मांगने की तर्ज पर अगर दुनिया चलेगी तो पूरी दुनिया अंधी हो जायेगी "महात्मा गांधी की ये बात जब से जीवन में उतारी तब से बहुत कुछ उतर गया ।जीवन से जो कुंठा,हताशा ,अपमान और तिरस्कार की सौगात मिली ।उसे जीवन को उसी रूप में लौटाने के बजाय सर्जना के स्वर में ढाल कर अपनी बात कहने के लिये साहित्य को एक विकल्प चुना जो मुझे बदला लेने के बजाय बदल देने की प्रेरणा देता है। जो मुझे सत्य के साथ मेरे प्रयोग पुस्तक ने सिखाया ,यही गांधीगीरी है अब अपनी ।
# love u Mummy प्रेमिका को प्रेमी की बातों का यकीन नहीं हो रहा था,प्रेमी उसके लिये तारे तोड़ कर लाने की बात कर रहा था,प्रेमिका ने प्रेमी की माँ का कलेजा मांग लिया।प्रेमी ने जाकर अपनी माँ को बताया और उसका कलेजा निकाल लिया,ये भी ना देखा कि माँ मरी या बची।बड़ी तेजी से वो प्रेमिका से मिलने अपनी माँ का कलेजा लिए दौड़ा जा रहा था,ठोकर से गिरा तो माँ का कलेजा बोला हाय मेरे लाल चोट तो नहीं आयी,प्रेमिका ने मां का कलेजा देखा तो प्रेमी से कहा,मां का ना हुआ तो मेरा क्या होगा ?
#MKGANDHI मेरी दृष्टि में महात्मा गांधी बुझी जाती है शम्मा मुशिरिकी आंधी से उम्मीदें ज़िंदा है लेकिन भाई गांधी से सौ बरस पहले कही गयी ये बात गांधीजी के बारे में आज भी मौजूं है,दो विश्वयुद्धों से आहत बीसवीं सदी की मानवता को भारत का उपहार हैं गांधीजी।एक आंख के बदले दूसरी आंख मांगने पर पूरी दुनिया के अंधी हो जाने का खतरा सबसे पहले गांधीजी ने ही चेताया था।उनके लिये अहिंसा का मतलब प्राणी मात्र के लिए दुर्भाव का अभाव था ,नोबेल पुरस्कार समिति का गांधीजी को नोबेलपुरस्कार ना दे पाने का अफसोस उनके महत्व की बानगी है ।
# काव्योसव माँ मां तू अपने पास बुला ले बहुत जल रहा तेरा बेटा हालातों से हार चुका है तन्हाई में,कठिनाई से खुद ही खुद को मार चुका है । घर मुझको खाने को दौड़े बिस्तर सूली सा है लगता मरूभूमि में जैसा प्यासा पानी के है बिना तरसता रोजगार ना आये हाथ भैया भाभी छुड़ाएं हाथ बहन कभी ना आंसू पोछे तेरा रूप ना किसी के साथ दुनिया से फटकार है मिलती बाबूजी भी झल्लाते हैं कहते हैं ओ अभागे बिन मां वाले खोटे सिक्के भी चल जाते हैं दिन भर मां मैं उड़ता जाऊं आज़ाद रहूं,ना कोई मलाल तकिए में मुंह छिपा के रोऊँ रातों का बस यही है हाल दुत्कारा मैं हर पल जाऊं जीवन में मिलती है चोट तेरा आँचल पास ने मेरे किस्में छुप कर लूं में ओट भूख ,प्यास,नींद और सपने सब मेरे अब हैं बेहाल अब मैं किस दर पर जाऊं कौन करे अब मेरा ख्याल माँ तू अपने पास बुला ले
मेरा कृष्णा कृष्ण मेरे लिये न्याय,नीति,मित्रता ,राजधर्म का पर्याय हैं,कृष्ण का इस बात के लिये अर्जुन को राजी करना कि शांति किसी भी कीमत पर मिले तो वो बहुत सस्ती है बगैर रक्तपात के चाहे वो पांच गांव तक ही सीमित क्यों ना हो,कुरुक्षेत्र में ये भी सिखाया कि देश के हित में व्यक्तिगत मोह का कोई महत्व नहीं,न्याय के शासन के लिये चाहे अपनों के खिलाफ क्यों ना जाना पड़े।कृष्ण ने बताया कि देश रहेगा तभी तो राजा रहेगा,राजा के लिये देश को बलिदान नहीं होने दिया जा सकता।
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