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अंतिम शब्द मैं और तुम लिखते रहते हैं, तुम और मैं पढ़ते रहते हैं। कौन-सा वाक्य अंतिम होगा? कौन बोलेगा, और कौन सुनेगा? जो अंत तक बचा, वो पाप का भागीदार ठहरेगा। क्योंकि उसे वो शब्द कभी नहीं मिलेंगे, जिनसे उसके शब्दों का उत्तर होना था। अंतिम शब्दों के बदले बस अंतिम शब्द ही रह जाएंगे।
सच की आवाज़ यहां कोई किसी का दुख नहीं पढ़ता, हर कोई बस अपना लिखा सुनाना चाहता है। इनके लिए लेखन एक सदस्यता है, जैसे कोई तमगा, कोई पहचान-पत्र। पर किसी के शब्दों के पीछे छिपा दर्द, कभी उनकी नज़र तक नहीं पहुँच पाता। यहां भावनाओं से ज़्यादा तालियाँ गिनने का शौक है, और हकीकत की बजाय दिखावे की रौशनी बिकती है।
तुम कितना भी किसी के लिए कर लो, लोग उसमें कमी ही ढूंढेंगे। तुम अपने हाथ कटवा दो, तो भी वो गला देखकर कह देंगे – “ये क्यों नहीं कटवाया? तुम तो मुझसे सच में प्यार ही नहीं करते।” यहां हर रिश्ता, हर वादा, प्यार की ओट में छुपा एक सौदा है। हर कोई किसी न किसी का सिर्फ प्रयोग कर रहा है, महज “प्यार” का नाम लेकर।
अच्छा लगता है ना , बिन बताए सारी बाते लिख देना , मन का वो पन्ना भी रह जाता है , जो कोई पढ़ ना पाया , और मन को लगता है कि , मैने वो सब बता दिया जो बताना था ।
ज़रा सोच कर देखो— अगले साल इसी दिन तुम कहां होगे? कौन तुम्हारे साथ होगा, कौन इस महफ़िल से चुपचाप रुख़्सत हो जाएगा, या शायद तुम ही अलविदा कह दोगे। यक़ीन नहीं आता तो पीछे मुड़ कर देखो— पिछले साल इन दिनों तुम किन उलझनों में थे, किस खुशी के पीछे भाग रहे थे, या किन छोटी-छोटी बेतुकी चिंताओं ने तुम्हें बेचैन कर रखा था, जिनका आज के दिन से कोई वास्ता ही नहीं। इसलिए डरो मत आने वाले कल से। जो होना है, वो होकर रहेगा। आज पर भरोसा करो। इसे खुलकर जियो, बेफ़िक्री से, आजादी से, बाग़ी बनकर।
मैं कोई लेखक नहीं, बस कुछ शब्द जोड़कर वाक्य बना देता हूँ। मैं कोई किसान नहीं, फिर भी पुश्तैनी ज़मीन में कुछ बीज बो देता हूँ। मैं कोई नौकरीपेशा नहीं, सिर्फ़ समय काटने ऑफिस चला जाता हूँ। मैं कोई व्यापारी नहीं, उधार के पैसों से अपना कारोबार चला लेता हूँ। मेरा सच में कुछ भी नहीं है, फिर भी लोग मुझे धनवान मानते हैं। अजीब विडम्बना है — यहाँ दिखावे से इंसान की असलियत तक आसानी से ढक दी जाती है।
पत्थर की मूर्तियों में खोजते हैं लोग भगवान, और उन्हीं मूर्तियों से पंडित सजाते हैं अपना संसार। मेलों में भूखे बच्चों की आँखों में सवाल हैं, पर उनके लिए ये भी रोटी का साधन बन गया है। फूल वाला, प्रसाद वाला — सब डर दिखाते हैं भगवान का, और उनके पीछे कमेटियाँ चलाती हैं व्यापार का गान। तो बताओ — भगवान सच में पत्थर में है, या उन भूखी आँखों में जो हर रोज़ हमें तकती हैं?
जब से जन्म लिया है - भूख , प्यास , प्यार , नाम , इज्जत और दिखावे के पीछे भाग रहे है । पर सोचा है क्यों ? क्या ये ही करना है हमें जो हर कोई करता है ? जहां जन्म लिया वहीं मर जाना ? हम किसी नाटक के पात्र है , कोई हमसे करवा रहा है , हम सब बागी है , हम नाटक से बाहर की जिंदगी जिए गे ।
आपने सोचा है - करोड़ों लाशे बिछी थी युद्ध के मैदान में , पर संजीवनी लक्ष्मण के लिए लाई गई । ओर उस पहाड़ को वापिस वहीं छोड़ दिया , जहां से लाया गया । क्या ये राम राज्य था ।
चंद मिनटों की मुलाक़ात, चंद घंटों में बिस्तर तक पहुँच जाती है, और फिर उस वक़्त को, "प्यार" का नाम दे दिया जाता है। हैरानी होती है… क्या हर बार "पहला प्यार" बोलकर सिर्फ हवस की भूख मिटाना ही मोहब्बत है?
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