Antarnihit 20 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अन्तर्निहित - 20

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अन्तर्निहित - 20

[20]

“तो वत्सर, आगे क्या हुआ? बताओ।” सारा ने पूछा। 

वत्सर ने गहन सांस ली। अभी भी उसकी दृष्टि व्योम में स्थिर थी। 

“मैंने उस स्वर, उस व्यक्ति और उन शब्दों को पहचान ने का, उसका स्मरण करने का तीव्र प्रयास किया किन्तु मैं विफल रहा।” क्षण भर वत्सर रुका। उसके मुख के भाव बताया रहे थे कि वह समय की उस क्षण से कुछ खोज रहा हो। विफलता मुख पर स्पष्ट प्रकट गई थी।

“पश्चात अनेक दिन बिना स्वप्न के व्यतीत हो गए। धीरे धीरे स्वप्न का विस्मरण होने लगा। कुछ दिनों के पश्चात नया स्वप्न आया।”

“क्या था उस नए स्वप्न में?” शैल ने रुचि प्रकट की। 

“एक पहाड़ी थी जहां बड़ी सी पत्थर की एक शीला थी। समीप उसके शिल्प के साधन थे। एक झरना, नदी सा विशाल झरना बह रहा था। एक अदृश्य हाथ उस शीला को आकार दे रहा था। मैं चकित होकर, मंत्र मुग्ध होकर देख रहा था। क्षणों में उसने एक अद्भुत शिल्प बना डाला।”

“कैसा शिल्प?”

“यही जो अभी हमारे सम्मुख है।” येला ने उस शिल्प की तरफ संकेत किया। सभी ने उसे देखा। 

“अर्थात आपका कहना है कि यह शिल्प वत्सर ने नहीं बनाया किन्तु वत्सर के स्वप्न में आकर किसीने बना दिया और वत्सर उसे यहाँ लेकर या गया?” सारा ने पूछा । 

“येला और वत्सर। आप दोनों कुछ काम की बात करो, कथाएं सुनाना बंद करो।” अब शैल ने भी धैर्य खोया। 

“आप दोनों बड़ी शीघ्रता से अपना धैर्य खो देते हो। पुलिसवाले हो ना?” येला ने व्यंग्य किया। 

“वत्सर बात ही ऐसी कर रहा है कि धैर्य रखना कठिन हो जाता है।” शैल ने कहा। 

“स्वप्न में किसी ने यह शिल्प बना दिया और उस शिल्प को अपना शिल्प बताकर महान शिल्पी होने का दंभ कर रहा है आपका यह कलाकार। येला जी।”

“नहीं सारा जी। वत्सर की बात का मूल उद्देश्य आप समझी नहीं।” शैल ने वत्सर की तरफ देखा और आगे कहा, “ऐसी बातें कर वह स्वयं को शिल्प से, हत्या से और अपराध से पृथक सिद्ध करना चाहता है। अपने अपराध से बचना चाहता है।”

“हो गई पुलिसवाली बातें? कर लिया न्याय? पा लिया हत्या के रहस्य को?” येला ने प्रश्न पूछे। 

“हाँ। हाँ। अब शेष बचा ही क्या है? वत्सर जैसे चतुर अपराधी यही करते हैं, ऐसे ही करते हैं।” सारा ने कहा। 

“आप दोनों ..।” येला ने कुछ कहना चाहा, वत्सर ने उसे रोका।  

“येला, इन लोगों से तर्क करना, कला की बात करना व्यर्थ है। हमें यह स्मरण रखना था कि हम अपनी कला की बात किससे कर रहे हैं। अंतत: यह दोनों है तो पुलिसवाले ही। प्रत्येक बात पर संशय करना, न्यायाधीश बन जाना इनका स्वभाव है, यही इनका व्यवहार है। अब हमें इनसे कला की कोई भी बात नहीं करनी है।” वत्सर क्षण भर रुका। सारा और शैल की तरफ मुड़ा, “चलो मुझे बंदी बना लो। और न्यायालय में प्रस्तुत करो। मुझे दोषित सिद्ध कर दो।” वत्सर ने अपने दोनों हाथ दोनों पुलिसवाले के सामने धर दिए। नत मस्तक हो गया। 

वत्सर की इस प्रतिक्रिया से दोनों अचंभित हो गए। सारा और शैल क्षण भर उन हाथों को देखते रह गए। अब क्या करें? क्या कहें? उन दोनों को कुछ भी नहीं सुझा। दोनों ने एक दूसरे को देखा। दोनों की आँखों में दुविधा थी। अनिर्णायकता थी । दोनों ने वत्सर को पुन: देखा। वह अभी भी हाथ धरे नत मस्तक खड़ा था। 

शैल ने पुन: सारा को देखा। संकेतों से प्रश्न किया, ‘डाल दें बेड़ियाँ?’ सारा ने संकेतों से ही कहा, ‘नहीं। अभी नहीं।’

सारा ने मौन तोडा, “वत्सर जी, आप तो अप्रसन्न हो गए। हमारा तात्पर्य था कि ...।”

“शब्दों के तात्पर्य को पुलिसवालों से अधिक कलाकार समझते हैं। हमें तात्पर्य समझाने का कष्ट ना करें।” येला ने कहा। 

“चलो हम आपकी बात मानकर आगे बढ़ते हैं। वत्सर, कहो जो कह रहे थे।”

“कहने को अब कुछ नहीं है। आप मेरे शब्दों पर विश्वास नहीं कर रहे हो अत: अब मैं कुछ नहीं कहूँगा। आप जो कार्यवाही करना चाहो, कीजिए।” वत्सर उस शिल्प के समीप जाकर खड़ा हो गया। सारा और शैल शिल्प के साथ वत्सर को देखने लगे। 

सहसा शैल ने अपने मोबाइल से शिल्प के साथ वत्सर के अनेक चित्र लिए, कुछ चलचित्र भी बना लिए। येला और वत्सर ने उसका कोई विरोध नहीं किया। 

“वत्सर, अभी भी कुछ कहना चाहते हो तो कह सकते हो। अपनी निर्दोषता सिद्ध कर सकते हो।”

“नहीं, मुझे अब आप दोनों से कुछ नहीं कहना।”

“क्यों?”

“क्या आप दोनों न्यायाधीश हो?”

“नहीं तो?”

“अब मुझे जो कहना होगा वह पुलिसवालों से नहीं, न्यायाधीश से कहूँगा, न्यायालय में कहूँगा।”

सारा और शैल को वत्सर के शब्दों ने आहत कर दिया, तथापि दोनों मौन ही रहे।