Anternihit - 7 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अंतर्निहित - 7

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अंतर्निहित - 7

[7]

शैल ने कुछ समय विचार किया। मन में योजना बनाई पश्चात उसने फोन लगाया। 

“महाशय, मुझे किसी पारिवारिक कार्य से सात दिनों के लिए अवकाश चाहिए।”

“शैल, यह समय अवकाश देना संभव नहीं है। तुम जानते हो वह सीमा वाली घटना में अभी तक कुछ भी प्रगति नहीं हुई है। उपर से पाकिस्तानी इन्स्पेक्टर सारा उलफ़त भी यहाँ आ गई है। यदि तुम अवकाश पर चले जाओगे तो सारा के हाथ में सब कुछ चला जाएगा। मैं नहीं चाहता कि इस मंजूषा में कोई विदेशी नेतृत्व करे, विशेष रूप से कोई पाकिस्तानी। तुम सारा से मिले? कैसी है वह?”

“नहीं, अभी तक तो नहीं मिला। उसे बाहर बिठाया है। मुझसे मिलने वह अधीर है। किन्तु मैंने उसे अभी कोई महत्व नहीं दिया है।”

“एक काम करो, उसे अभी इस जांच से जोड़ना नहीं। तुम अवकाश पर से लौट आओ तब उसे तुम्हारे दल में जोड़ लेना। तब तक उसे भी अवकाश पर भेज दो अथवा कहीं अन्यत्र व्यस्त रखो। स्मरण रहे, तुम्हारी अनुपस्थिति में वह इस मंजूषा के एक भी पक्ष से परिचित नया हो।”

“वैसा ही होगा। अवकाश स्वीकृत करने के लिए धन्यवाद।”

“ठीक है। किन्तु सचेत रहना।”

“जी।” शैल ने फोन सम्पन्न किया।

येला कि तरफ मुड़ा, “चलो। हमें अभी ही निकलना होगा। क्या तुम सज्ज हो?”

“जी। किन्तु कैसे जाएंगे केरल तक? यहाँ से लंबे अंतर पर है वह।”

“हवाई यात्रा से। आज रात्री को अथवा कल प्रभात में जो भी हवाई जहाज उपलब्ध होगा हमें चलना होगा। ठीक है?”

“कब तक लौटेंगे?”

“मैं नहीं जानता।”

“किन्तु ..?”

“यदि तुम नहीं आना चाहती हो तो कोई बात नहीं। मैं अकेला .. ।”

“नहीं, नहीं। ऐसी बात नहीं है।”

“यदि अधिक समय लगे तो तुम लौट जाना।”

“ठीक ह”

“अब मैं जो कहूँ उसे ध्यान से सुनना। यह हमारे दोनों के अतिरिक्त किसी को पता न चले कि हम केरल जा रहे हैं, क्यों जा रहे हैं। मैंने सात दिनों का अवकाश लिया है और कहा है कि पारिवारिक कार्य है। दूसरा, बाहर एक स्त्री तुम्हारे समीप बैठी थी उससे जानती हो?”

“नहीं।”

“वह पाकिस्तान की इन्स्पेक्टर सारा उकफ़त है। इस मंजूषा की जांच में वह भी अब हमारे साथ जुड़ेगी। किन्तु अभी उसे इससे दूर रखना है। जब मैं केरल से लौट आऊँगा तब उसे जांच में जोड़ूँगा। अभी वह मुझसे मिलना चाहती है। मैं उसे औपचारिक रूप से मिलूँगा। मिलना तो पड़ेगा ही। किन्तु तुम्हें मेरे साथ एक नाटक में सहयोग करना पड़ेगा।”

“यदि नाटक का उदेश्य सकारात्मक होगा तो मैं अवश्य ही सहयोग दूँगी।”

“ऐसा ही होगा।”

“कहो, क्या करना होगा मुझे?”

“मैं तुम्हें सारा के समक्ष मेरी ‘स्त्री मित्र’ के रूप में प्रस्तुत करूंगा। और कहूँगा कि तुम्हारे साथ मुझे कहीं जाना होगा इसलिए सात दिन तक मैं अवकाश पर रहूँगा। लौटने के पश्चात जांच पुन: प्रारंभ होगी। क्या तुम इतना सहयोग डोंगी?”

“यदि कुछ समय तक ऐसा नाटक करना हो तो मुझे तुम्हारी स्त्री मित्र बनना स्वीकार्य है।”

“धन्यवाद। किन्तु मैंने तुम्हारे विषय में तो कुछ पूछा ही नहीं। अपना परिचय भी नहीं दिया तुमने?”

“तुम्हारी स्त्री मित्र हूँ और परिचय क्या चाहिए? बाकी सब केरल की यात्रा में परिचय कर लेना।” येला हंस पड़ी। शैल भी। 

“आओ मेरे साथ।” शैल खड़ा हुआ। येला भी। दोनों द्वार खोलकर बाहर आए। सारा और विजेंदर उन दोनों को देखकर खड़े हो गए। दोनों की आँखों में कुछ प्रश्न थे जिनके उत्तर देना शैल को आवश्यक नहीं लगा। 

“विजेंदर, मैं और येला दोनों कहीं जा रहे हैं। सात दिन के अवकाश पर।” विजेंदर के मुख पर अनेक नए प्रश्न आ गए। शैल ने उसे वहीं छोड़ दिए। सारा की तरफ मुडा, “सारा जी नमस्ते। आपका भारत में स्वागत है। हम साथ मिलकर उस रहस्य से जवनिका हटा देंगे।”

“जवनिका? क्या होता है यह?”

“पर्दा। जवनिका का अर्थ है पर्दा। हम उस रहस्य से पर्दा हटाकर ही रहेंगे। क्या आपका सहयोग मिलेगा?”

“इसी कारण तो मैं यहाँ आई हूँ। किन्तु आप तो अवकाश पर जा रहे हो?”

“हाँ। जाना पड रहा है। इनसे मिलिये।” शैल येला की तरफ मुड़ा, “आप हैं येला स्टॉकर। मेरी स्त्री मित्र। येला, यह है सारा उलफ़त। सीनियर इन्स्पेक्टर, पाकिस्तान।”          

येला और सारा ने परस्पर अभिवादन किया। 

“तो चलें, येला?” शैल ने कहा और येला चलने लगी।

“शैल जी, सात दिनों तक मैं क्या करूं? मंजूषा से संबंधित जो भी प्रमाण है उसे देख लूँ?”

“सारा जी, यह सब तो राज के काम हैं। चलते रहेंगे। आप भारत में प्रथम बार आई हो ऐसा हमें सूचित किया गया है। तो भारत के आतिथ्य का अनुभव करें। मुझे विश्वास है कि आप निराश नहीं होंगी। सात दिनों की तो बात है। पश्चात हम पुन: काम पर लग जाएंगे। विजेंदर, सारा जी का ध्यान रखना। उसे किसी बात का कष्ट न हो।” शैल ने विजेंदर की तरफ देखा। विजेंदर ने संकेतों में उत्तर दिया। शैल और येला वहाँ से चल दिए। 

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सारा दोनों को जाते हुए कुछ क्षण तक देखती रही। उसके मन में अनेक विचार आए और प्रवाहित होते हुए चले गए। उसे जब कुछ भी न सुझा तो उसने विजेंदर को देखा। वह अपने स्थान पर नहीं था। पूरे कक्ष में सारा अकेली थी। उसने कक्ष का निरीक्षण तो पहले ही कर लिया था अत: कक्ष में देखने के लिए कुछ शेष नहीं था। उसने विचार किया, ‘मैं भाग जाती हूँ यहाँ से।’ वह उठी और जाने लगी तब उसे ध्यान आया, ‘मैं एक पुलिस अधिकारी हूँ। पुलिस कभी भागती नहीं है।’ वह द्वार पर ही अटक गई। 

तभी कहीं से विजेंदर प्रकट हो गए, “भाग जाने का विचार है क्या?”

“भागे मेरे दुश्मन।” कहते हुए सारा ने एक मोहक स्मित विजेंदर को दिया। 

“आपके लिए इसी भवन में एक कक्ष की व्यवस्था कर दी गई है। आप जब तक हमारे अतिथि हैं, आप वहीं निवास करोगी। कक्ष में वह सब सुविधा उपलब्ध है जो सामान्य रूप से मनुष्य को आवश्यक होती है। यह है इस कक्ष की चाभी।“ विजेंदर ने चाभी सारा के सामने धर दी। 

“लगता है यह चाभी स्वयं ही मुझे उस कक्ष तक ले जाएगी।” 

“आप व्यंग अच्छा कर लेती हैं।” विजेंदर ने सारा के मुख को देखा, “मैं आपको वहाँ तक ले जाता हूँ। चलिए मेरे साथ।”

दोनों कक्ष तक आ गए। मार्ग में विजेंदर ने भवन से परिचय करवा दिया। सारा का सामान विजेंदर ने उठा लिया, सारा के हाथों में केवल कक्ष की चाभी ही रही। 

सारा ने कक्ष का द्वार खोला, दोनों भीतर प्रवेश कर गए। 

“मैं अब चलता हूँ। कुछ चाहिए तो मुझे मेरे इस नंबर पर कॉल कर देना।” विजेंदर ने अपना नंबर दिया। 

“ठीक है। और आप मेरा नंबर भी ले लीजिए। यह है मेरा नंबर।” विजेंदर ने उसे ले लिया। 

वह चलने लगा तो सारा ने कहा, “विजेंदर जी, आप के सर शैल जी का नंबर मिल सकता है? कुछ काम पड जाए तो ..?” 

“वैसे तो सर का नंबर किसी को नहीं दिया जाता किन्तु आप तो.., ठीक है। आप को दिया जा सकता है।” नंबर देकर विजेंदर वहाँ से चला गया।