Antarnihit - 17 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अन्तर्निहित - 17

Featured Books
Categories
Share

अन्तर्निहित - 17

[17]

वकार के घर रात्री के समय भोजन के उपरांत सारा, निहारिका, सपन तथा वकार बैठे थे। 

“वकार, कुछ व्यवस्था है या?” निहारिका के शब्दों का अर्थ वकार भली भांति जानता था। वह उठा। विदेशी उच्च कक्षा के दारू की बोतलें आदि लेकर वह लौटा। 

वकार ने प्याले भरे। 

“आज सबसे पहले सारा जी को दी जाएगी।” निहारिका ने वकार को सूचना दी। वकार सारा की तरफ बढ़ा, उसके सामने दारू धर दिया। सारा ने कुछ क्षण उस बढ़े हुए हाथ को देखा, निश्चय कर लिया और बोली, “जी नहीं। मैं नहीं पीती।” 

“सारा जी, इसे अपना ही घर समझो। पी लो।” 

“निहारिका जी, धन्यवाद। किन्तु मैं कह चुकी हूँ कि मैं नहीं पीती।”

“थोड़ा तो चलता है यार दोस्तों के साथ।” सपन ने कहा। 

“थोड़ा भी नहीं। मेरे ना का अर्थ ना ही है।” 

सारा के स्पष्ट उत्तर ने तीनों को जो संदेश दिया उसके पश्चात किसी ने सारा को आग्रह नहीं किया। सब पीते रहे। थोड़ी प्रतीक्षा के पश्चात सारा उठी, “मुझे नींद आ रही है। मैं सोने को चलती हूँ।”

“अरे, बैठो न कुछ देर।” वकार ने आग्रह किया। 

“कल सवेरे आठ बजे मैं सज्ज हो जाऊँगी।” सारा चलने लगी। 

“हम दस बजे चलेंगे।” सपन ने कहा। सारा चली गई। 

तीनों ने देर रात तक पी, जागते रहे। अंत में एक ही बिस्तर पर निहारिका के एक तरफ वकार तो दूसरी तरफ सपन था। रात बितती गई।

+_+_+_+_+

 

दस बज गए थे। सारा सज्ज होकर बाकी के लोगों की प्रतीक्षा कर रही थी। तीनों में से किसी के कोई संकेत नहीं दिख रहे थे। 

‘कहाँ रह गए यह सब? कहीं बाहर तो नहीं गए? घर में कोई गतिविधि नहीं हो रही है।’

‘क्या करूँ? कैसे पता लगाउँ?’

‘कुछ समय प्रतीक्षा कर लेती हूँ। तब तक सब आ जाएंगे।’

सारा प्रतीक्षा करने लगी। आधे घंटे से अधिक समय बीत गया किन्तु कोई संकेत नहीं मिले। 

सारा ने निहारिका को फोन लगाया। 

“हेलो, कौन?” निहारिका ने नींद में फोन का उत्तर दिया। 

“मैं, सारा। आप कहाँ हो? हमारे चलने का समय हो गया है।”

“तुम सज्ज हो गई?”

“कब की। प्रतीक्षा कर रही हूँ आप सब की।”

“अभी तो हमारी नींद भी नहीं उडी।” नींद में ही निहारिका ने कहा। 

“तो क्या हमें नहीं चलना है?”

“रुको रुको। हम जल्दी से जल्दी तैयार हो जाते हैं।” निहारिका ने फोन काट दिया। 

एक ही शयनखंड से तीनों निकले। तीनों के रूप को देखकर सारा ने आकलन कर लिया कि रातभर इन तीनों के मध्य क्या हुआ होगा। क्षण के लिए सारा ने आँखें बंद कर ली, खोली और घर से बाहर चली आई। 

प्राय: बारह बजे सब सज्ज होकर आए। 

“सारा जी, आप आगे बैठिए। मैं और सपन पीछे बैठते हैं।”

“जब गाड़ी वकार चल रहा है तो सपन जी आगे बैठेंगे तो उचित रहेगा।”

“नहीं, तुम यहाँ पहली बार आई हो। गाड़ी में आगे बैठकर इस स्थल के सौन्दर्य को अच्छी तरह से देख सकोगी।”

“नहीं। मैं पीछे से ही देख लूँगी।” सारा पीछे की सीट पर बैठ गई। तीनों के पास कोई विकल्प नहीं रहा। गाड़ी शिल्प की तरफ चलने लगी। 

“वह शिल्प शाला यहाँ से प्राय: एक सौ अस्सी किलो मीटर के अंतर पर है। यह पहाड़ी मार्ग से हम पाँच घंटे में वहाँ पहुँच जाएंगे।” वकार ने सारा को बताया। सारा मन से गाड़ी के भीतर नहीं थी तथापि ऊसने सुना। कोई उत्तर नहीं दिया। 

सारा के मन में विचार चल रहे थे। 

‘कैसे हैं यह लोग? मुझे अभी दो तीन दिन ही हुए हैं इस धरती पर आए। किन्तु यहाँ की हवा में कुछ है जो मुझे मेरे सिद्धांतों पर चलने के लिए बल प्रदान कर रहा है। मुझे कुछ भी अनैतिक कार्य करने से रोक रहा है। हनी ट्रैप करने को भी मन नहीं हो रहा है। और यह लोग?’

‘जन्म से ही इसी धरती पर रह रहे हैं किन्तु एक भी अनैतिक कार्य करना नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसा क्यूँ? क्या इस देश की हवा का इन पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा है?’

‘केवल हवा से ही प्रभाव नहीं पड़ता।’

‘और क्या बात हो सकती है?’

‘हवा से भी अधिक प्रभावशाली होते हैं संस्कार, शिक्षा, और पूर्व जन्म के कर्म।’

‘भारत में रहकर भी इनके यह संस्कार? यह कैसी शिक्षा पाई हैं इन लोगों ने?’

‘उसे छोड़ो। तुम्हें अपने संस्कार और शिक्षा के अनुरूप व्यवहार करना होगा। करोगी ना?’

‘अवश्य वही करूंगी।’

‘वचन देती हो?’

‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं। मुझ पर विश्वास करते रहना।’

सहसा वकार ने गाड़ी रोक दी। सारा के विचार भी रुक गए। 

“क्या हुआ, वकार?” निहारिका ने पूछा। 

“यहाँ देखो। कितनी गाड़ियां खड़ी है! लगता है आगे कुछ हुआ है जिसके कारण मार्ग अवरुद्ध हो गया है।” सपन ने कहा। 

“मैं अभी जाकर देख आता हूँ।” वकार चला गया। कुछ अंतराल के पश्चात वह लौटा।  

“आगे भु-स्खलन हुआ है। पहाड़ से बड़ी बड़ी शिलाएं मार्ग पर गिर गई है। आधे घंटे पहले ही ऐसा हुआ है। मार्ग बंद कर दिया गया है। मार्ग को खुलने में समय लग सकता है।”

“कितना?”

“आठ से दस घंटे। अधिक भी लग सकता है।”

“तो अब क्या?” सारा ने पूछा। 

“प्रतीक्षा कर लेते हैं।”

“इस मार्ग पर?”

“चाहो तो घर लौट सकते हैं। घर से एक घंटे की दूरी पर हैं हम।”

“यहाँ कोई होटल होगी क्या?” सारा ने कहा। 

“पीछे तीन किलोमीटर पर एक होटल है। क्यों? वहाँ रुकना है?”

“आप सब घर जाइए। मैं होटल में रुक जाती हूँ। कल जब मार्ग चालू हो जाए तब मुझे लेते चलना।”

“क्यों? तुम घर नहीं चल रही हो?”

‘मन तो करता है कि कह दूँ कि तुम्हारा घर मुझे अच्छा नहीं लगता।’ सारा ने स्वयं को रोका। उत्तर बदल दिया। 

“नहीं, मैं यहाँ रहकर पहाड़ का आनंद लेना चाहती हूँ। आप मेरी चिंता ना करें। आप घर लौट जाइए।”

“ठीक है। हम भी यहीं होटल में रुक जाते हैं। सब साथ रहें तो ठीक रहेगा।” निहारिका ने कहा। सब ने मान  लिया। 

होटल में सारा ने अपने लिए एक स्वतंत्र कक्ष लिया। तीनों एक ही कक्ष में रुक गए। 

‘मुझे मेरा काम निकल जाए तब तक ही इन लोगों के साथ रहना है। यह लोग अच्छे नहीं हैं।’ सारा ने निश्चय कर लिया। स्वयं को अपने कक्ष में बंद कर लिया। 

=-=-=-=-=-=