The Love That Was Incomplete - Part 6 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 6

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 6

तौफ़ीका बेग़म की आँखों में एक बुझी हुई चिंगारी फिर से भड़क उठी। उसकी आवाज़ काँप रही थी, “फरज़ाना... मेरी छोटी बहन थी।”
“क्या?” अपूर्व के होठों से निकला।
“हाँ... और वही शायद आख़िरी इंसान थी जो रुखसाना की मौत की रात मौजूद थी... और फिर रहस्यमयी तरीक़े से गायब हो गई...”
पुराने संदूक से निकली चिट्ठी अपूर्व के हाथ में थी, लेकिन उसके शब्द अब धुंधले लगने लगे थे। हवेली में अचानक एक सिहरन सी फैल गई। तौफ़ीका बेग़म की आत्मा उसी तरह खड़ी थी—स्थिर, मगर उसकी आँखों में कोई अनकहा तूफान घूम रहा था।
"तुम कह रही थीं... फरज़ाना?" अपूर्व ने फिर पूछा, लेकिन इस बार उसकी आवाज़ में हौले से डर भी था।
तौफ़ीका बेग़म की आत्मा ने अपनी धुँधली आँखें बंद कर लीं। उसकी देह अब धीमे-धीमे धुएँ में बदलने लगी थी, मानो वक़्त उसे फिर किसी दूसरी परछाई में समेट रहा हो।
"कुछ सवालों का जवाब… समय देता है," उसकी आवाज़ गूंज की तरह फैलती गई। "लेकिन याद रखना ... हर साया जो रोशनी से दूर गया, वो लौटेगा... किसी और शक्ल में…"
और फिर तौफ़ीका बेग़म की आत्मा उस संदूक की ओर झुकी और एक आखिरी चीज़ वहाँ से बाहर निकली—टूटे हुए बाले की जोड़ी। हवा में उसे कुछ देर तक थामे रखा, फिर वो भी उसकी तरह गायब हो गईं।
हवेली में अब फिर सन्नाटा था। लेकिन अपूर्व के भीतर शोर उठ रहा था।
रुखसाना की चिट्ठी में जिस डर का ज़िक्र था… वो फरज़ाना से जुड़ा था।
 फरज़ाना – जो उस रात आख़िरी बार रुखसाना के साथ देखी गई थी।
 और अब पता चला... वो तौफ़ीका की बहन थी।
तो क्या वो भी… मर चुकी है?
 या अभी भी… कहीं ज़िंदा है?
 या फिर… कुछ और?
अपूर्व ने संदूक की बाकी चिट्ठियाँ ध्यान से देखने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही उसने दूसरी चिट्ठी छुई, कमरे की बत्ती हल्की-हल्की फड़कने लगी। दीवार पर लगी एक पुरानी तस्वीर हिल गई — और एक धीमी सी आह निकलने की आवाज़ आई, जैसे किसी ने सदियों बाद अपनी साँस छोड़ी हो।
"क्या कोई देख रहा है मुझे?" अपूर्व ने घबराकर पीछे देखा।
कोई नहीं था।
मगर अचानक — सामने की दीवार पर रुखसाना की परछाईं उभरी। लेकिन वो स्थिर नहीं थी… वो चल रही थी। और उसके पीछे एक और परछाईं थी — जो लम्बी थी, दुबली और... अजीब तरह से विकृत। जैसे किसी ने उसे खींचकर मोड़ दिया हो।
अपूर्व ने डरकर पलटकर दरवाज़ा खोला, लेकिन दरवाज़ा अब बंद था। बाहर की हवा एक बार फिर तेज़ हो गई थी, हवेली की छत पर कुछ चलने की आवाज़ें आ रही थीं — जैसे नंगे पाँव कोई भारी शरीर दौड़ रहा हो।
सहसा, एक पुरानी घंटी अपने आप बज उठी — वह घंटी जो केवल मेहमानों के स्वागत में बजती थी… या फिर तब, जब कोई आत्मा अपनी उपस्थिति दर्ज कराती थी।
अपूर्व ने बमुश्किल हिम्मत जुटाकर पूछा, "कौन है? तौफ़ीका बेग़म…?"
एक धीमा, असामान्य हँसी का स्वर गूंजा…
"तौफ़ीका अब नहीं... कोई और है…"
हवा ने कमरे के किवाड़ झकझोरे और एक नया संदेश दीवार पर उभर आया — कोयले जैसे काले अक्षरों में:
“जिसने सब देखा... वही सबसे ख़ामोश रहा...”
अपूर्व के रोंगटे खड़े हो गए। वो चिट्ठी जो उसने अभी तक नहीं खोली थी, अब अपने आप खुल गई। उसमें बस एक वाक्य लिखा था — काँपते हाथों से, शायद मौत से ठीक पहले:
“वो अब भी यहीं है, हर रात... फरज़ाना।”
अपूर्व की आँखों में जलन थी और मन बेचैन। खिड़की के पास से टकराती तेज़ हवा से पर्दे बार-बार उड़ रहे थे, जैसे कोई अंदर आने की ज़िद कर रहा हो।
अपूर्व धीरे-धीरे उस कोने की तरफ बढ़ा जहाँ दीवार पर कुछ देर पहले लिखा था —
 "जिसने सब देखा... वही सबसे ख़ामोश रहा..."
पर अब वह लिखाई ग़ायब थी।
लेकिन ठीक उसी जगह की ईंटें अलग रंग की लग रही थीं — जैसे वहाँ कुछ छुपाया गया हो।
 अपूर्व ने धीरे से दीवार पर थपथपाया — अंदर कुछ खोखला सा महसूस हुआ।
 उसने पास रखी मोमबत्ती उठाई और ध्यान से देखा — वहाँ दीवार में एक पतला छोटा सा कट था… जैसे दरवाज़े की आकृति।
"तहख़ाना..." अपूर्व ने फुसफुसाकर कहा।
उसने कभी सुना था — हवेली में एक पुराना तहख़ाना है, जिसे सालों पहले बंद कर दिया गया था… क्योंकि वहाँ से डरावनी आवाज़ें आती थीं। लेकिन किसी ने कभी उसकी जांच नहीं की, शायद अब तक।
उसने ज़मीन की ओर देखा — एक पुराना छल्लेदार हैंडल झांक रहा था।
 मिट्टी और धूल हटाने पर लकड़ी का जंग लगा दरवाज़ा उभर आया।
हाथ काँप रहे थे, लेकिन हिम्मत करके उसने उसे खींचा। एक डरावनी कराह जैसी आवाज़ के साथ दरवाज़ा खुला — और नीचे जाती पत्थर की सीढ़ियाँ दिखीं, घुप अंधेरे में डूबी हुई।
एक पल के लिए अपूर्व रुका, लेकिन फिर वो मोमबत्ती थामे नीचे उतरने लगा।
 हर कदम के साथ ठंड और सन्नाटा गहराता गया।
नीचे पहुँचते ही एक अजीब गंध ने उसे जकड़ लिया — गीली दीवारें, सीलन और कुछ... जैसे लोबान या मरी हुई यादों की मिली-जुली गंध।
चारों ओर पत्थर की दीवारें थीं, लेकिन सामने एक लकड़ी की पुरानी अलमारी रखी थी — जिस पर उर्दू में कुछ लिखा था:
"राज़ को मत जगाओ, वरना वो तुम्हें जगाता रहेगा..."
अपूर्व ने काँपते हाथों से अलमारी खोली। अंदर धूल से भरी कई पुरानी चीज़ें थीं — रुखसाना का एक पुराना दुपट्टा, एक टूटी चूड़ी, और... एक ब्लैक-एंड-व्हाइट तस्वीर।
उस तस्वीर में फरज़ाना थी। लेकिन अकेली नहीं।
 उसके साथ वही लम्बा, अजीब चेहरा था… जो अपूर्व ने परछाईं में देखा था।
"ये कौन है?" अपूर्व बुदबुदाया।
तभी पीछे से एक सांस की आवाज़ आई —
 धीमी, रुक-रुक कर आती — जैसे कोई कई सालों बाद फिर ज़िंदा हुआ हो।
अपूर्व ने पलटकर देखा।
 अंधेरे में कोई था।
 किसी औरत की आकृति। बहुत धीमी चाल। सफ़ेद कपड़े। उलझे बाल। और वो आँखें… जो बंद होकर भी देखती थीं।
"तुम... फरज़ाना हो?"
 आवाज़ घुटी हुई थी, लेकिन निकल ही गई।
औरत रुकी। अपूर्व की ओर देखा। और धीरे से सर हिलाया — नहीं।
"तो तुम कौन हो?"
उसने अपना मुँह खोला… पर शब्दों की जगह सिर्फ़ एक चीख़ निकली —
 इतनी तीव्र, कि मोमबत्ती बुझ गई।
अब सिर्फ़ अंधेरा था। स्याह, ठंडा, और ज़िंदा।