The Love That Was Incomplete - Part 7 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 7

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 7

रात गहराने लगी थी। हवेली के पुराने कमरों में से एक में रखा ग्रामोफोन अपने आप चल पड़ा। न कोई पास था, न कोई स्पर्श। फिर भी उस पर एक रेकॉर्ड घूमने लगा — और एक बेहद पुरानी, धुंधली आवाज़ हवाओं में तैरने लगी —
"जिसे पाया नहीं… वही रूह बन गया..."
अपूर्व बुरी तरह से घबराया हुआ था । अन्वेषा अब भी बेहोश पड़ी थी, लेकिन उसका चेहरा किसी असहज सपने से भीग रहा था। उसका माथा पसीने से तर था।
अपूर्व धीरे से आगे बढ़ा । वो आवाज़ अब भी हवेली में कहीं दूर बज रही थी, जैसे दीवारों से टकराकर वापस लौट रही हो।
चलते-चलते वह एक लंबे गलियारे के अंत में पहुँचा — जहाँ कभी कोई कमरा नहीं दिखा था। लेकिन आज वहाँ एक टूटा-फूटा दरवाज़ा था… जिसे उसने पहले कभी देखा नहीं।
दरवाज़े पर कोई नाम नहीं था। केवल एक जली हुई उर्दू पंक्ति उकेरी गई थी, शायद किसी की उंगलियों से —
 "वो लौटेगा… रूहों का हिसाब अधूरा है…"
अपूर्व की साँस अटक गई। उसने काँपते हाथों से दरवाज़ा खोला।
अंदर अंधेरा था — मगर उस अंधेरे में एक सुगंध तैर रही थी। वो कोई आम महक नहीं थी — गुलाब और रूहअफज़ा जैसी, मगर कुछ भारी, जैसे किसी याद की धूल हो।
एक कोने में एक पुराना बक्सा रखा था, और बक्से पर बैठी थी — वही रहस्यमयी औरत। झुकी हुई कमर, आँखों पर झीना पर्दा, और होंठों पर एक ऐसी मुस्कान, जो किसी को भी काँपने पर मजबूर कर दे।
“तुम आ ही गए,” उसने धीमे से कहा, “बहुत देर कर दी …”
अपूर्व की साँसें थम सी गईं। “त … तुम कौन हो ? मुझे जानती हो ?”
उसने धीरे से सिर हिलाया और तीखी सी आवाज गूंजी - 
“मैं तुझे तबसे जानती हूँ जब तूने पहली बार उसके लिए क़त्ल किया था…”
“क… किसके लिए?” अपूर्व की आवाज़ कांप गई।
उस औरत ने अपूर्व की तरफ देखा — उसकी आँखें अब धुएँ की तरह सफ़ेद हो चुकी थीं।
“जिसकी आत्मा अब तेरे घर में साँस ले रही है… वो रुखसाना थी… वो अब अन्वेषा है… और तू… तू वो है… जो कभी आगाज़ कहलाता था…”
कमरे की दीवारें अचानक थरथराने लगीं। वो ग्रामोफोन की धुन बाहर से और ज़ोर से आने लगी —
"जिसे पाया नहीं… वही रूह बन गया..."
अपूर्व पीछे हटना चाहता था, मगर पैर जैसे जम चुके थे। तभी बक्से से कुछ गिरा — एक कागज़ का पुराना पुलिंदा।
उसने झुककर उसे उठाया। उस पर लिखा था —
"रुखसाना की आख़िरी रात — मेरी आँखों से"
नीचे नाम लिखा था — “फ़रज़ाना बेग़म”
अपूर्व की साँस रुक गई।
“तो… तू फ़रज़ाना हैं?” उसने काँपती आवाज़ में पूछा।
वो औरत मुस्कराई… पर जवाब नहीं दिया। सिर्फ़ दीवार की ओर मुड़कर धीमे से बोली —
“हर जवाब वक़्त माँगता है… और कुछ सवाल कभी पूछे ही नहीं जाते…”
और फिर वो धुएँ में घुलकर गायब हो गई।
अपूर्व काँपते हाथों से पुलिंदा खोले बैठा था। कमरे की बत्तियाँ मंद थीं, पर उस डायरी के पन्ने जैसे भीतर से ही रोशन थे। पहला पन्ना खुला जो काली रोशनाई से लिखा गया था:
"इक्कीस जुलाई, उन्नीस सौ चौवीस — वो रात..."
"मैंने उसे पहली बार रुखसाना की आँखों में देखा — खौफ़।
और फिर वो खामोशी, जिसमें सैकड़ों चीखें कैद थीं।
उस रात, जब सब सो रहे थे… हवेली की पिछली बगिया में एक साया चुपचाप उसके पास आया। वो था… नासिर।
और मैं… मैं परदे के पीछे छिपी थी।
नासिर ने उसका हाथ पकड़ा था — और कहा था, 'रुखसाना, अगर तू निकली नहीं… तो हम दोनों यहीं दफन हो जाएँगे।'
पर रुखसाना का जवाब चौंकाने वाला था —
'नासिर, हमें सिर्फ मौत जोड़ सकती है… ज़िन्दगी नहीं। '
और उसने पीछे मुड़कर देखा — वो खड़ा था। वही, जिसकी आँखों में मोहब्बत नहीं, मालिकाना हक़ था। आग़ाज़ ख़ान।
उस रात हवेली में तीन जानें थीं — एक इश्क़, एक इम्तिहान, और एक इंसाफ़।
लेकिन इंसाफ़ कभी हुआ नहीं… क्योंकि आग़ाज़ ने नासिर को वहीं ज़िंदा दफन कर दिया था । और मैं… मैं बस चुप खड़ी रही।
कभी-कभी खामोशियाँ भी गुनहगार होती हैं।"
अपूर्व का कलेजा फटने लगा।
 "मैं आग़ाज़ था?"
 उसने खुद से पूछा — पर जवाब उसकी रगों में दौड़ती वो सर्द सनसनाहट बन गया।
उसने अचानक देखा — अन्वेषा दरवाज़े पर खड़ी थी।
लेकिन उसकी आँखें उसकी अपनी नहीं लग रही थीं।
उसके होठों पर थरथराती आवाज़ थी —
 "तुम जान गए… वो मैंने कभी नहीं चाहा था… नासिर की मौत…"
"अन्वेषा?" अपूर्व आगे बढ़ा।
वो पीछे हटी — जैसे उसकी आत्मा अपूर्व के स्पर्श से डरती हो।
"तुम फिर वही हो… जिसने नासिर को छीन लिया था… मुझे बाँध लिया था… मुझे इस हवेली में कैद कर दिया था…"
और अचानक उसकी आँखों से आँसू नहीं, काली स्याही बहने लगी।
अपूर्व चीख पड़ा —
 "अन्वेषा नहीं… ये तुम नहीं हो!"
वो गिर पड़ी — और अगले ही पल अंधेरा छा गया।
जब रोशनी लौटी… अन्वेषा बेहोश थी।
उसके पास एक कागज़ का और टुकड़ा पड़ा था — उस पर उर्दू में कुछ लिखा था:
हवेली के उस बड़े से कमरे में अब मौन था, भारी और डरावना।
अपूर्व ने कांपते हाथों से काग़ज़ का वह टुकड़ा उठाया।
 स्याही अब भी ताज़ा लग रही थी, जैसे किसी ने अभी-अभी लिखा हो:
 "वो अधूरी मोहब्बत अब हिसाब माँगती है..."
अचानक खिड़की का शीशा खुद-ब-खुद चटक गया। और उसी के साथ, हवेली की बत्ती एक बार फिर झिलमिलाई — पर इस बार वह रोशनी के साथ एक अजीब-सी सरसराहट भी ले आई। जैसे कोई अदृश्य साया अब कमरे के भीतर था… और फिर… अन्वेषा की पलकों में हरकत हुई।
“अन्वेषा!” अपूर्व घबरा कर उसके पास पहुँचा।
उसकी आँखें धीरे-धीरे खुलीं… मगर उनमें एक गहराई थी — जैसे किसी और का जीवन अब वहाँ पल रहा हो।
“मैं… कहाँ हूँ?” अन्वेषा ने धीमी आवाज में पूछा।
“तुम ठीक हो… बस एक बेहोशी थी,” अपूर्व ने कहा, पर उसकी आवाज़ खुद विश्वास में नहीं थी।
अन्वेषा ने अपने चारों ओर देखा — फिर अपने सिर पर हाथ रखा, जैसे कोई याद उसे चुभ रही हो।
“मैंने… कोई सपना देखा… नहीं… ये सपना नहीं था… कोई था वहाँ… एक कमरा… एक चेहरा… एक बक्सा…”
“क्या तुमने कुछ पढ़ा… देखा…?” अपूर्व ने धीरे से पूछा।
“हां… कोई औरत… जिसने मुझसे कहा कि मैं यहाँ पहले भी थी… उसने मेरा नाम लिया — रुखसाना…”
अपूर्व की साँसें जैसे रुक गईं।
 अन्वेषा ने उसकी आँखों में देखा —
 “कौन थी वो औरत, अपूर्व? और तुम क्यों मुझे ऐसे देख रहे हो… जैसे मैं कोई और हूँ?”
अपूर्व कुछ बोलने ही वाला था कि दीवार के पास रखी अलमारी अचानक खुल गई — अपने आप।
 भीतर से एक सफ़ेद कबूतर निकला — मगर उसकी आंखें लाल थीं, और उसकी गर्दन पर एक पुरानी बेलनुमा ताबीज़ बंधी थी।
कबूतर उड़ता हुआ अन्वेषा के पास आया — और उसकी गोद में वह ताबीज़ छोड़ गया।
अन्वेषा ने कांपते हाथों से उस ताबीज को उठाया।
ताबीज़ के भीतर एक बहुत बारीक काग़ज़ मोड़ा हुआ था।
 अपूर्व ने उसे खोला।
 उसमें उर्दू में एक नई बात लिखी थी:
"अगर सच को रोकना है, तो उस दरवाज़े को मत खोलना… जो हवेली के नीचे छिपा है…"
“हवेली के नीचे?” अन्वेषा ने हैरानी से पूछा।
अपूर्व चुप रहा — लेकिन उसकी आंखें अब उस पुराने तहख़ाने की ओर मुड़ चुकी थीं, जिसे वर्षों से किसी ने नहीं छुआ था।
अपूर्व के मन में चल रही उथल पुथल को भांपते हुए अन्वेषा ने उसे उस तरफ जाने से रोक लिया ।