The Love That Was Incomplete - Part 10 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 10

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 10

“आगाज़…”
वही स्वर…
 धीमा…
 सरसराता हुआ…
 जैसे किसी ने अपूर्व के कान में साँस लेकर बोला हो।
अपूर्व का शरीर ठिठक गया।
 उसने सिर उठाकर देखा —
 सामने वही पुराना पीपल का पेड़।
 कई शाखाएँ अब भी झूल रही थीं जैसे किसी अनदेखी लाश को लटकाए हों।
 
अचानक हवा तेज़ हुई।
 चारों ओर धूल उड़ने लगी।
अपूर्व का दिल धड़कता रहा…
 कदम जैसे खुद-ब-खुद उस पेड़ की ओर बढ़ते गए।
एक बार… दो बार… तीन बार आवाज़ फिर आई —
“आगाज़… खून बहाया था तुमने…”
वो आवाज़ अब चारों दिशाओं से आ रही थी।
और तभी—
अपूर्व की आँखों के आगे एक भयानक दृश्य कौंध गया।
उसने देखा —
 ज़मीन पर खून में सनी एक औरत पड़ी थी, उसकी कलाई से चूड़ियाँ टूटी थीं, होंठों पर अधूरी दुआ थी…
रुख़साना।
और उसके सामने एक पुरुष खड़ा था —
 हाथ में लहूलुहान खंजर…
 आँखों में पछतावा नहीं, सिर्फ़ सन्नाटा।
 उसने चेहरा ऊपर उठाया…
और अपूर्व कांप उठा — वो चेहरा उसका ही था।
वो… आगाज़ था।
अपूर्व की साँसें फूल गईं।
 उसका शरीर पसीने से भीग गया।
 वो पीछे हटना चाहता था, मगर उसके पैर जैसे ज़मीन से चिपक गए थे।
रुख़साना ने आँखें खोलीं…और सीधा अपूर्व की ओर देखा।
“क्यों मारा मुझे…?”
उसकी आवाज़ बुझती हुई लौ जैसी थी —
 मगर उन तीन शब्दों में ऐसा ताप था कि अपूर्व की आत्मा काँप गई।
“क्यों मारा मुझे…”
"क्यों मारा मुझे..."
वो वाक्य बार-बार गूंजने लगे।
 हर दिशा से, हर पेड़ से, हवेली की दीवारों से… जैसे पूरी हवेली ये जानती हो।
पीछे से आवाज़ आई —
 "अब बारी तुम्हारी है, आगाज़..."
अपूर्व ने झटके से पीछे देखा —
 पेड़ की जड़ों से कुछ बाहर निकल रहा था…
 काले वस्त्र में ढकी कोई आकृति, जो धीरे-धीरे उसकी ओर रेंग रही थी…
अचानक ज़ोर की चीख उठी !
“आ….ह !”
अपूर्व ने आँखें कसकर बंद कर लीं।
कुछ पल बाद — सब शांत।
जब उसने आँखें खोलीं —
 सामने पेड़ था… मगर वहाँ कोई नहीं था।
 ना रुख़साना, ना आगाज़, ना खून।
बस ज़मीन पर कुछ था —
 एक पुरानी चूड़ी…
 और रुख़साना की टूटी हुई चुनरी का एक टुकड़ा…
 जिस पर अब भी खून के निशान थे।
अपूर्व धीरे से उस चूड़ी को उठा लिया …
 और उसके कानों में धीमे स्वर में फिर वही आवाज सुनाई दी —
“यही खून तुम्हारी रगों में अब भी बह रहा है… आगाज़।”

दूसरी तरफ हवेली में ..

रात की खामोशी में अन्वेषा का कमरा जैसे किसी और दुनिया में तब्दील हो गया था।
उसके अंदर कुछ जाग रहा था—काला, घना अंधेरा जो धीरे-धीरे उसकी रूह को अपनी गिरफ्त में ले रहा था।
वो बिस्तर पर पड़ी थी, पर उसकी सांसें रुक-रुक कर चल रही थीं।
 दिल धड़क रहा था जैसे कोई जादुई शक्ति उसके अंदर उठ रही हो—
 एक गहरी, काली और उथल-पुथल मचाती हुई आग।
उसके दिमाग़ में एक आवाज़ गूंज रही थी—धीमी, पर जहर घोलती।
“रुख़साना...”
 “तुम मेरी जिंदगी चुरा चुकी हो...”
 “और अब मेरी मौत का बदला लेने का वक्त आ गया है!”
आँखें बंद करके अन्वेषा ने कोशिश की खुद को संभालने की, लेकिन एक भयानक दृश्य उसके मन की आँखों के सामने तैरने लगा —
खून से सना हुआ चेहरा, आगाज़ की शक्ल में, जिसमें ज़हर और पागलपन के निशान थे।
 उसके सामने जमीन पर गिरी रुख़साना—शांत , घायल, पर उसकी आँखों में आग की लपटें जल रही थीं।
अचानक, अन्वेषा की रूह के भीतर कुछ टूटने लगा।
 उसके होठों से एक आवाज़ निकली—
 “मुझे छोड़ दो... मैं... मैं नहीं...”
 पर अंदर की कोई शक्ति उसे रोक रही थी, गले लगाकर उसकी आवाज़ को घुटा रही थी।
उसका दिल तेज़-तेज़ धड़कने लगा,
 जैसे कोई भयानक हथियार उसके सीने पर ज़ोर से वार कर रहा हो।


वहीं दूसरी ओर, हवेली के रास्ते पर अपूर्व धीमी गति से आगे बढ़ रहा था।
 हवा में घुली सर्दी उसकी हड्डियों तक पहुंच रही थी।
 हर कदम पर उसके दिल में घबराहट बढ़ रही थी—जैसे हवेली में कुछ असामान्य होने वाला हो।
उसके कानों में अब भी अन्वेषा की आवाज़ गूँज रही थी, जो कह रही थी—
 “सावधान रहना...”
जैसे ही वो हवेली के गेट के करीब पहुंचा, अचानक अंधेरा और ज्यादा गहरा गया ।
 फिर—एक तेज़ झोंका हवा का आया, जो गेट की कुंडी जोर से बजाने लगा।
अपूर्व ने अपने आप को संभाला और दरवाजा खोला।
 लेकिन अंदर कदम रखते ही उसकी सांस अटक गई—
हवेली के मुख्य हॉल में, धुंध सी फैली थी, और दीवारों पर अचानक किसी ने खून से बड़ी-सी उंगली के निशान बनाए थे।
 उस निशान के नीचे एक ताज़ा लाल रंग का धब्बा था—जैसे कोई अभी-अभी घायल हुआ हो।
अपनी उंगलियों से उसने निशान को छुआ, और अचानक पीछे से एक ठंडी आवाज़ आई —
“तुम बहुत देर से आए, अपूर्व...”
उसने पलट कर देखा—कोई नहीं था।
 पर हवा में जैसे कोई साया फिसल गया हो।
तभी हवेली की दीवार पर बड़ी, चमकीली एक छाया उभर आई—
 आगाज़ की, खून सनी आंखों और सख्त पुतले जैसी शक्ल में।
खुद को सम्हालते हुए अपूर्व ने धीरे से कहा—
 “ये सब क्या हो रहा है? मैं... मैं अकेला नहीं हूँ यहाँ?”
और तभी, हवेली के एक कोने से एक मंद रोशनी जलने लगी—
 
और हवेली की खिड़की से अचानक एक छाया ने उसे घूरा—
 और उस छाया ने धीरे से कहा—
 “अपूर्व... तुम्हारा वक्त खत्म हो चुका है...”