तेज़ हवा के थपेड़ों के बीच हवेली का पुराना लकड़ी का दरवाज़ा ज़ोर से भड़भड़ाया और फिर चरमराता हुआ खुल गया। एक साया भीतर दाख़िल हुआ — तौफ़ीका बेग़म। झुलसा हुआ चेहरा, आँखों में जली हुई रातों की राख, और चाल में मातम की गूंज। उसके चेहरे पर वक्त की जली रेखाएँ, पीड़ा, क्रोध और रहस्य की मोटी परतें साफ़ नज़र आ रही थीं।
उसकी आवाज़ टूटी हुई पर तल्ख़ थी, "तू अब भी उसे नहीं पहचानता, आगाज़?"
अपूर्व को जैसे किसी अदृश्य झटके ने पीछे धकेल दिया। उसका शरीर कांप उठा। "मैं अपूर्व हूँ... कोई आगाज़ नहीं... ये सब क्या हो रहा है?"
तौफ़ीका बेग़म कुछ कदम और आगे बढ़ी। उसकी नज़रें अब अन्वेषा पर थीं, जो दीवार से सटकर खड़ी थी, मगर उसकी आँखों में डर की बजाय एक ठंडी बेचैनी थी—एक गूढ़ स्तब्धता। ऐसा लग रहा था कि उसके शरीर में कोई और आत्मा निवास कर रही है।
"इस शरीर में अब मेरी रुखसाना नहीं... बस उसकी पीड़ा है। तूने, आगाज़, उसे सिर्फ नासीर से नहीं छीना था, तूने उसकी आत्मा को भी कैद कर दिया था। पर अब वक़्त है निर्णय का।"
हवा का दबाव बढ़ गया। एक खिड़की अपने आप खुल गई और पर्दा तेज़ी से लहराने लगा। तभी कमरे के एक कोने से एक नर्म, मगर गंभीर आवाज़ आई — नासीर की आत्मा की।
"मैं नहीं चाहता कि रुखसाना और किसी दर्द से गुज़रे। उसकी आत्मा को मुक्ति चाहिए, न कि बदला।"
तौफ़ीका बेग़म के चेहरे पर गुस्सा उभर आया। वह चीखी, "और तुझे क्या अधिकार है उसकी मुक्ति का फैसला करने का? तू तो खुद उसकी मौत की वजह बना!"
नासीर की आत्मा शांत हो गई। हवेली की छत से टपकती पानी की बूँदें अब धीरे-धीरे लाल रंग में तब्दील होती लग रही थीं, मानो दीवारें खून की कहानियाँ बहा रही हों।
अपूर्व के सिर में अचानक एक असहनीय दर्द उठा। वह लड़खड़ाया और फिर ज़मीन पर गिरते-गिरते खुद को सम्हाल लिया। उसकी आँखों के सामने धुंध छा गई। फिर उभरीं कुछ धुंधली, मगर ज्वलंत तस्वीरें:
एक भव्य, पुरानी कोठी।
एक लड़की जो चुपचाप किसी पुरुष—आगाज़—को देख रही है।
आगाज़ – ठीक उसी जैसे दिखने वाला व्यक्ति – तलवार लिए किसी को धमका रहा है।
एक अंधेरी गुफा, जिसमें कोई ज़िंदा दफन किया जा रहा है।
और... एक औरत की चीख — "नासीर!"
अपूर्व हाँफता रहा, उसकी साँसें बेकाबू हो गईं। "ये... ये सब मेरे साथ क्यों हो रहा है?"
तौफ़ीका बेग़म की आवाज़ अब धीमी मगर गहरी थी, "क्योंकि तू सिर्फ अपूर्व नहीं है... तू वो सवाल है, जिसका जवाब हर आत्मा को चाहिए।"
तभी हवेली की पुरानी घड़ी ने बारह बजने की टन-टन की आवाज़ दी। उसी पल अन्वेषा की देह कांपी और उसने भयानक चीख मारी। उसके शरीर में कंपन था, और उसकी आँखें पल-पल रंग बदल रही थीं—कभी शांति, कभी क्रोध, कभी मासूमियत, कभी घृणा।
एक मासूम, कंपकंपाती आवाज़ गूंजी — "अम्मी .. मैं थक गई हूँ..." यह रुखसाना की आत्मा थी।
तौफ़ीका बेग़म ने ज़ोर से कहा, "नहीं, बेटी! तू अब भी अधूरी है! तू बदला लिए बिना नहीं जा सकती!"
"बदला नहीं... बस चैन चाहिए..." रुखसाना की आत्मा बोली और उसी क्षण अन्वेषा की देह हवा में उठ गई। वह ज़मीन से तीन फीट ऊपर लटक रही थी, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे थामे हुए हो। उसके चारों ओर हवा की तेज़ धाराएं घूमने लगीं। हवेली के कोनों से चीखों की गूंज उठी—पुरानी आत्माएं भी जाग उठीं थीं।
अपूर्व ने डरते हुए, पर साहस जुटाकर कहा, "रुको! ये मत करो! अगर ये सब मेरे कर्मों का फल है... तो सज़ा मुझे दो। लेकिन अन्वेषा को छोड़ दो!"
हवेली के बीचोंबीच अचानक एक तेज़ उजाला फैला। एक अलौकिक शक्ति, एक ऊर्जा, जो दो आत्माओं को अलग कर रही थी। कमरे की दीवारें काँप उठीं, छत की लकड़ियाँ चरमराईं, जैसे सदी भर पुरानी पीड़ा आज झुक रही हो।
नासीर की आत्मा आगे बढ़ी, उसकी आवाज़ अब और भी कोमल थी, "रुखसाना, अगर तू मुझे अब भी प्यार करती है, तो छोड़ दे इस शरीर को। मैं तेरा इंतज़ार कर रहा हूँ... दूसरी दुनिया में... चलें?"
रुखसाना की आँखों से आँसू बह निकले। वो अपनी माँ तौफीका बेगम की ओर मुड़ी, जो अब काँप रही थी, उसकी आँखों में दृढ़ता और मोह का द्वंद्व स्पष्ट था।
"अम्मी ... मुझे जाने दो... .."
तौफ़ीका बेग़म ने अपनी आँखें बंद कर लीं, जैसे वह वर्षों से रोकी हुई भावनाओं को आज़ाद कर रही हो। फिर गहरी साँस लेकर बोली, "जाओ... मेरी बच्ची... जाओ, जहाँ तुम्हें चैन मिले।"
धीरे-धीरे अन्वेषा की देह नीचे उतरी, उसका कंपन शांत हुआ, साँसें सामान्य हो गईं। उसकी आँखें खुलीं — अब वो सिर्फ अन्वेषा थी। उसके चेहरे पर थकान थी, मगर एक अजीब सुकून भी।
नासीर और रुखसाना की आत्माएँ एक साथ उस उजाले में विलीन हो गईं। हवेली का तापमान सामान्य हो गया। हवा थम गई। वो अजीब सी भयावह गंध भी जैसे दूर जा चुकी थी।
अपूर्व ने झुककर अन्वेषा को थाम लिया। वह अब होश में थी, मगर थकी हुई और लगभग बेहोश। उसकी साँसें चल रही थीं — ये इस बात की पुष्टि थी कि सब कुछ अभी खत्म नहीं हुआ है।
तौफ़ीका बेग़म अब भी उस दिशा में देख रही थीं, जहाँ आत्माएँ विलीन हुई थीं। उसकी आँखों में शांति थी, मगर उसके होठों पर एक रहस्यमयी बात अधूरी छूट गई। वह बुदबुदाई, "अब फैसला हो गया है... लेकिन कुछ राज़ अभी भी दफ़न हैं।"
तभी हवेली के एक और कमरे से एक सूखी सी दरारदार आवाज़ आई, जैसे किसी पुराने संदूक की कुंडी अपने आप खुली हो। अपूर्व और तौफ़ीका बेग़म ने चौंककर उस ओर देखा। वह पुराना संदूक, जो नासीर की मौत के बाद से कभी नहीं खुला था, अब धीरे-धीरे खुल रहा था।
अपूर्व ने धीमे स्वर में कहा, “क्या उसमें कुछ और छुपा है?”
तौफ़ीका बेग़म की आँखें फैल गईं। “वो संदूक... उसमें... रुखसाना की आख़िरी चिट्ठियाँ हैं… और... एक और नाम जो इस कहानी का हिस्सा है...”
“कौन?” अपूर्व ने पूछा।
उन्होंने काँपती आवाज़ में उत्तर दिया, “फरज़ाना...”
हवेली में सन्नाटा पसर गया था, लेकिन इस बार यह सन्नाटा डर का नहीं था—यह किसी और ही तूफान से पहले की शांति लग रही थी। अपूर्व की आंखें अब उस पुराने संदूक पर टिक गई थीं, जिसकी कुंडी अपने आप खुली थी। रुखसाना की माँ तौफ़ीका बेग़म उसके पास खड़ी थी, चेहरा पीला पड़ा हुआ, आँखों में अजीब सी बेचैनी और उंगलियाँ लगातार काँप रही थीं।
अपूर्व ने धीरे से संदूक का ढक्कन उठाया। भीतर सूखे गुलाब की पंखुड़ियाँ थीं, एक हल्का गुलाबी रेशमी दुपट्टा और कुछ चिट्ठियाँ—जिनकी स्याही अब धुंधली हो चुकी थी। एक कोने में एक पुरानी मोमबत्ती भी रखी थी, जो शायद कभी रुखसाना ने जलाई थी।
अपूर्व ने काँपते हाथों से एक चिट्ठी निकाली और पढ़ना शुरू किया:
“प्यारी फरज़ाना,
जब सबने मेरा यकीन तोड़ा, तू ही थी जो मेरी आवाज़ बनी। नासीर और मेरा रिश्ता जब दुनिया के लिए जुर्म था, तू ही थी जो हमें मिलाती रही। पर अब मुझे डर है, फरज़ाना... आगाज़ को कुछ भनक लग गई है। अगर मुझे कुछ हो गया, तो मेरा सच तेरे पास है…”
अपूर्व के चेहरे पर पसीना छलक आया। उसने धीमे स्वर में पूछा, “तो फरज़ाना... नासीर और रुखसाना की मददगार थी? लेकिन वो कहाँ गई?”