The Love That Was Incomplete - Part 8 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 8

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 8

….अगली सुबह...

सुबह की पहली किरणों ने हवेली की खिड़कियों से झाँककर भीतर की नींद को सहलाना शुरू किया। पिछली रात की घबराहट अब एक धुंधली सी स्मृति लग रही थी।
अपूर्व बिस्तर से उठा, लेकिन अन्वेषा अब भी आँखें मूँदे पड़ी थी। उसका चेहरा शांत था, पर माथे पर पसीने की महीन रेखा बता रही थी कि नींद इतनी सुकूनभरी नहीं रही होगी।
वो धीरे से उसके पास बैठा और उसके बालों को पीछे किया। तभी अन्वेषा ने आँखें खोलीं।
“तुम कब उठे?” उसने नींद भरी आवाज़ में पूछा।
“तब जब तुम्हारा सपना ख़त्म हुआ।” अपूर्व ने मुस्कुरा कर जवाब दिया।
अन्वेषा ने सिर घुमाया। “क्या मैं फिर कुछ... अजीब... कह रही थी?”
“नहीं,” अपूर्व ने झूठ बोला, “बस थोड़ा बेचैन थी। लेकिन अब सब ठीक है।”
वो कुछ देर चुप रही, फिर बोली — “अपूर्व, चलो कहीं दूर चलते हैं। इस हवेली से… इन आवाज़ों से।”
अपूर्व ने उसका हाथ थामा, “दूर चलेंगे… लेकिन अभी नहीं। शायद यही वो जगह है जहाँ हमें खुद से मिलना है।”
अन्वेषा कुछ नहीं बोली, चुपचाप अपूर्व को देखती रही । 
समय अपनी गति से सरकता हुआ ढलती शाम के धुंधलके में बदलने लगा था।   
हवेली के पिछवाड़े बने गुलमोहर के सूने आँगन में लकड़ी का एक पुराना झूला लगा हुआ था — धूल से सना, पर अब भी मज़बूत।
अपूर्व ने झूले पर बैठते हुए कहा — “पता नहीं इस पर आखिरी बार कौन बैठा होगा…”
अन्वेषा झूले के दूसरे सिरे पर बैठ गई और मुस्कुराकर बोली — “शायद कोई… जिसका इंतज़ार अब भी झूला करता है।”
कुछ देर तक दोनों बस झूलते रहे। हवा में पुराने फूलों की सुगंध थी, और हर झूले के साथ एक अजीब-सी कशिश महसूस हो रही थी — जैसे किसी पुराने पल की परछाईं साथ झूल रही हो।
अपूर्व ने धीरे से उसका हाथ थामा।
“क्या सोच रही हो?” उसने पूछा।
अन्वेषा ने कहा —
 “सोच रही हूँ कि तुम जब चुप रहते हो… तब भी जैसे तुम्हारा मन बहुत कुछ कह जाता है।”
अपूर्व हँस पड़ा — “और जब तुम चुप रहती हो, तब लगता है जैसे कोई पुराना अफ़साना कान में गुनगुनाने लगा हो।”
अन्वेषा ने सिर उसके कंधे पर टिका दिया।
“कभी लगा है तुम्हें,” वह बुदबुदाई, “कि किसी को पहली बार देखते ही… यूँ लगे जैसे वो तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था?”
अपूर्व ने उसकी ओर देखा। एक पल को शब्द जैसे ग़ायब हो गए।
उसने बस धीरे से कहा —
 “शायद यही है... ‘पहचान’। वक़्त से परे की।”
वे दोनों वहाँ देर तक बैठे रहे — न कोई वादा, न कोई डर। बस झूलते हुए, जैसे दो आत्माएँ… बीते जन्मों की थकान उतार रही हों।
पर उस रात—
बिजली कड़कती रही। हवेली की दीवारों के बीच एक खामोश दरार खिंच गई थी।
अन्वेषा सो चुकी थी, और अपूर्व अपनी डायरी में दिनभर की घटनाएं लिख रहा था:
“अन्वेषा ने फिर कहा कि वह इस जगह को जानती है। आज उसने एक पुरानी नज़्म गुनगुनाई—‘वो जो था कभी, अब नहीं रहा…’। क्या यह वही शेर था जो नासिर की याद में लिखा गया था? क्या यह महज़ इत्तिफ़ाक़ है?”
अपूर्व ने डायरी बंद की और अन्वेषा की बगल में लेट गया । कुछ ही देर में वो नींद के आगोश में समा गया। 
रात के लगभग दो बजे।
कमरे में अचानक खड़खड़ाहट हुई। एक खिड़की तेज़ हवा से झटके से खुल गई। पर ये सिर्फ हवा नहीं थी।
अन्वेषा की नींद खुली। वह उठकर बैठी, और फिर उसकी नज़र अलमारी के पास के कोने में गई — वहां कोई था।
एक धुंधली परछाईं।
 न तो पूरी तरह औरत, न ही पूरी तरह कोई आकृति।
 उसकी नज़रें अन्वेषा से नहीं, उसके भीतर कहीं झाँक रही थीं।
अन्वेषा का गला सूख गया। वह बोलना चाहती थी, पर आवाज़ जैसे किसी ने छीन ली हो।
 वह आकृति धीरे-धीरे आगे बढ़ी… और जैसे ही चांदनी की रौशनी उस पर पड़ी, अन्वेषा ने देखा — उसका चेहरा... उसका अपना ही चेहरा था, पर आंखों में गहरा काला खालीपन।
और तभी एक झटका —
 अन्वेषा ज़मीन पर गिरी, और उसकी आँखें पलट गईं।
अपूर्व ने जैसे ही चीख की आवाज़ सुनी, वह उठ बैठा।
 “अन्वेषा!”
 वह दौड़कर उसके पास आया, पर अन्वेषा की सांसें बहुत तेज़ चल रही थीं, उसका चेहरा अजीब ढंग से ऐंठा हुआ था।
वह बुदबुदा रही थी… किसी दूसरी भाषा में, किसी दूसरे युग के शब्दों में।
 “मुझे क्यूँ छोड़ा था… आग में क्यों झोंक दिया… मेरा नाम… मेरा नाम मत लेना…”
अपूर्व घबरा कर जागा ।
 “अन्वेषा! सुनो! मैं हूँ… अपूर्व… देखो मुझे!”
लेकिन अन्वेषा की आंखों में कोई और था।
 वह अब अन्वेषा नहीं थी।
 वह कोई और थी — जो लौट आई थी।
….कमरे में फैला स्याह सन्नाटा अब तक टूटा नहीं था। अपूर्व घुटनों के बल अन्वेषा के पास बैठा था — उसके माथे से पसीना पोंछते हुए, उसकी बुदबुदाहट को समझने की कोशिश करते हुए।
“मैं कौन हूँ…? मुझे क्यों भुला दिया… आग… वो आग मुझे निगल गई… मेरा नाम क्यों छुपाया?”
अपूर्व की रूह काँप उठी।
 ये अन्वेषा की आवाज़ थी — लेकिन जैसे कोई और बोल रहा हो उसकी आवाज़ में।
वो बार-बार खुद को देखती, और फिर कहती —
 “ये चेहरा मेरा नहीं है… ये मैं नहीं हूँ…”
अपूर्व ने घबराकर पास पड़ा पानी का गिलास उठाया और उसके चेहरे पर छींटें डाले।
 “अन्वेषा! देखो मेरी तरफ! होश में आओ! तुम ठीक हो…”
कुछ क्षणों तक सन्नाटा।
 फिर अन्वेषा की पलकों ने काँपते हुए झपकना शुरू किया।
वह हाँफ रही थी। भीगी हुई आँखें, उलझी हुई साँसें।
“क्या… क्या हुआ मुझे?”
 उसने थरथराते हुए पूछा।
अपूर्व ने उसे बाँहों में भर लिया।
 “तुम अचानक अजीब तरह से बात करने लगी थीं… तुम्हें शायद बुरा सपना आया था।”
पर वो सपना नहीं था।
“मैंने खुद को देखा, अपूर्व…”
 अन्वेषा ने उसकी छाती से सिर उठाकर कहा,
 “मैंने खुद को आग में जलते देखा… कोई मुझे छोड़कर जा रहा था… और वो चेहरा… वो चेहरा मेरा था, पर मैं नहीं थी…”
अपूर्व का दिल बैठने लगा।
“क्या तुम फिर… फिर वही नाम ले रही थीं… रुख़साना?”
अन्वेषा ने ठहर कर उसकी ओर देखा।
 उसकी आँखों में भय था… पर एक गहराई भी थी — जैसे वो किसी और की आँखों से देख रही हो।
“ मेरे सपनों में ये नाम गूंजता है… कोई मुझे बुलाता है — रुख़साना…”
अपूर्व की हथेलियाँ ठंडी हो गईं।
उसने मन ही मन तय किया — अब और नहीं।
वो अब इस हवेली का रहस्य खुद खोलेगा।
उसी रात, जब अन्वेषा सो गई,
अपूर्व उठा… उसने टॉर्च ली… और हवेली के तहखाने की ओर बढ़ा।
जब वह तहखाने के दरवाज़े तक पहुँचा, तो उसे उस पुराने ताले पर अजीब सी सिंदूरी रेखा दिखी — मानो किसी ने कभी उसे बांधा हो…
जैसे वहाँ कुछ कैद हो।
और तभी उसे टॉर्च की रोशनी में दीवारों पर कुछ लिखा दिखा — उर्दू में।
और फिर एक अजीब-सी गंध… जैसे भीगते गुलाब और जलते लोबान की मिली-जुली परछाईं…
और फिर उसकी टॉर्च अपने-आप बंद हो गई।
क्लिक।
पूरा अंधेरा।
और किसी ने उसके कान में फुसफुसाया —
 “आग़ाज़…”