“आग़ाज़…”
यह पुकार सिर्फ एक आवाज़ नहीं थी — यह उस दबी हुई रूह की दस्तक थी, जो सदियों से बंद तहख़ाने की दीवारों में घुली हुई थी।
अपूर्व ने पलटकर देखा।
कमरे में कोई नहीं था।
पर उस आवाज़ की गर्माहट अब भी उसके कानों में गूंज रही थी — जैसे किसी अपने ने बहुत दूर से पुकारा हो... धीरे से... दर्द में डूबी हुई वो आवाज ...
"आग़ाज़..."
वो ठिठक गया।
एक सिहरन उसके पूरे शरीर में समा गई ।
"किसने...अ … आ ….वा …?" उसके होंठ हिले, पर शब्द अधूरे रहे।
अचानक, दीवार पर जड़े पुराने आईने में कुछ हलचल सी दिखी।
अपूर्व ने गौर से देखा — उसमें किसी की परछाई दिखाई दे रही थी ।
काले लिबास में... सिर झुकाए हुए...
वही जिसने उसे आवाज़ दी थी।
आईना धुंधला था, फिर भी वो परछाई साफ़ दिख रही थी।
और उस परछाई की आँखें — अपूर्व की तरफ गढ़ी हुई थीं।
"अब वक़्त आ गया है..."
आईने में दिख रही परछाई की होंठ हिले — आवाज़ नहीं, पर उसकी बात साफ़ सुनाई दी।
"किसका वक़्त?" अपूर्व ने पूछा, हिम्मत बटोरते हुए।
आईना फड़फड़ाया, जैसे कोई हवाओं में काँपता पर्दा हो... और फिर...एक आवाज उभरी
"सच का... आग़ाज़ का..."
अगले ही पल आईने की सतह चटक गई — और उससे एक चमकीली दरार बाहर निकल आई... सीधी उस दीवार तक जहाँ से तहख़ाने का बंद दरवाज़ा शुरू होता था।
अपूर्व उस दीवार तक गया, जहाँ पहले कोई दरवाज़ा नहीं था।
पर अब, आईने की दरार सीधी वहाँ तक फैली थी ।
और फिर...दीवार के भीतर से तीन बार दस्तक हुई
ठक... ठक... ठक...
जैसे कोई भीतर से बाहर निकलना चाहता हो।
या अपूर्व को अंदर बुलाना।
अपूर्व पीछे हटना चाहता था — पर उसके पैर जैसे ज़मीन में जड़ हो गए थे।
वो न ज़ोर से चीख सकता था, न भाग सकता था।
"दरवाज़ा खोलो..."
फिर वही आवाज़ आई — वही धीमी आवाज पर दिल दहला देने वाली पुकार।
और तभी, दीवार की सतह से एक पुराना लोहे का हत्था उभर आया।
अपूर्व ने कांपते हाथों से उसे छुआ।
सर्द... गीला... जैसे खून से भीगा हो।
उसने हत्था दबाया — और दीवार फट गई ।
एक अंधेरा रास्ता खुल गया।
अंधेरे में उतरते ही अपूर्व को महक आई — बासी गुलाबों और जली हुई रूहों की।
दीवारों पर न जाने क्या लिखा था — अरबी में? उर्दू में? जैसे कोई पुराना राज़?
उसने देखा — एक कोना रौशन है।
वहाँ पर एक कुरसी रखी है।
कुरसी पर सफ़ेद चादर से ढका कोई जिस्म।
बिलकुल शांत।
अपूर्व ने क़दम बढ़ाया — उसके हर क़दम के साथ दिल की धड़कन दुगुनी हो रही थी।
चादर के पास पहुँच कर उसने धीरे से कोना उठाया।
और वह चीख पड़ता अगर उसकी आवाज़ लौट सकती।
वहाँ — किसी का कंकाल नहीं था।
वहाँ तो था उसका ही चेहरा —
बिलकुल वैसा ही, जैसा वो आइने में रोज़ देखता है।
पर आँखें खुली थीं।
और होंठ मुस्कुरा रहे थे।
"क्यों ना कहूँ तुम्हें आग़ाज़... जब तुम वही हो?"
पीछे से आवाज़ आई —
“क्यों ना कहूँ तुम्हें आग़ाज़… जब तुम वही हो?”
अपूर्व ने पलटकर देखा।
एक बूढ़ा शख़्स — झुकी कमर, सफ़ेद दाढ़ी, आंखों में नमी — छाया सा खड़ा था।
उसका चेहरा जाना-पहचाना था, जैसे अपूर्व ने कहीं देखा हो — शायद उस पुरानी तस्वीर में जो हवेली की दीवार पर जड़ी थी।
"तुम... कौन हो?" अपूर्व की आवाज़ काँप रही थी।
"मैं वो हूँ जो अब तक इंतज़ार कर रहा था... उस दिन का जब आग़ाज़ लौटेगा।"
अपूर्व चीखा , "मैं अपूर्व हूँ!"
"तुम्हारा नाम क्या है, ये तुम क्या जानो?" बूढ़े ने आगे बढ़ते हुए कहा, "तुमने उसकी मोहब्बत छीनी थी... रुख़साना की रूह अब भी तुम्हें पहचानती है..."
उस बूढ़े की आवाज गूँज उठी ।
वो आगे बोला —
"आओ, मैं तुम्हें दिखाता हूँ वो कमरा जहाँ उसका क़त्ल नहीं, उसका इंतज़ार दफ़न हुआ था।"
वे दोनों तहख़ाने के एक और हिस्से में पहुँचे।
जहाँ एक पुरानी मेज़ पर कुछ काले गुलाब, एक ख़त, और एक बंद गुलदान रखा हुआ था ।
ख़त में लिखा था —
"अगर तू आए तो कहना, मैं अब भी इंतज़ार करती हूँ।
तू नासिर नहीं... फिर भी तू मेरा है।"
अपूर्व की आँखें भर आईं।
ये लफ़्ज़ उसके भीतर उतरते जा रहे थे —
जैसे उसके अंदर कोई और जाग रहा हो...
तहख़ाने की सीलनभरी हवा में अंधेरा इतना गाढ़ा था कि रोशनी खुद को खो चुकी थी।
अपूर्व उस बूढ़े के पीछे-पीछे बढ़ता गया, जिसका हर कदम समय के किसी पुराने ज़ख्म को कुरेदता लग रहा था।
“तुम क्या जानते हो मेरे बारे में?”
अपूर्व की आवाज़ धीमी लेकिन कांपती हुई थी।
बूढ़ा मुस्कराया —
“जितना तुम भूल चुके हो, उससे कहीं ज़्यादा।”
वो एक दीवार के पास रुका, उस पर एक पुराना झरोखा था — जो बंद था ।
बूढ़े ने अपने कमरबंद से एक चाबी निकाली, और झरोखे को खोला।
झरोखे के पीछे एक और कमरा था — एक गुप्त कक्ष।
कमरे में रखी थी —
एक पुरानी इत्र की शीशी
एक पाकीज़ा शेरवानी
और दीवार पर टंगी थी एक काली-सी तस्वीर जिसमें रुख़साना खड़ी थी — उसकी आंखों में वही बेचैनी जो अब अन्वेषा की आंखों में बस गई थी।
वो बूढा उस तस्वीर की तरफ इशारा कर बोला - “ये रुख़साना की आख़िरी तस्वीर थी, जब उसने आग़ाज़ के लिए सजना छोड़ दिया था…”
अपूर्व ने पूछा —
“ये सब मेरे साथ क्या हो रहा है?”
बूढ़ा झुका, और धीमी आवाज में बोला —
“तुम्हारे अंदर जो आत्मा है, वो सिर्फ अपूर्व की नहीं... आग़ाज़ की भी है। लेकिन ये जान लो, आग़ाज़ केवल क़ातिल नहीं था — उसकी आत्मा प्यासी थी … और उसकी अधूरी कहानी अब भी जाग रही है इस हवेली में।”
अपूर्व ने लगभग चिल्लाकर कहा - “तुम झूठ बोल रहे हो।”
लेकिन तभी दीवार पर टंगी रुख़साना की तस्वीर अपने आप ज़मीन पर गिर पड़ी।
शीशा चटक गया — और पीछे एक गुप्त कागज़ से लिपटा पुराना पत्र निकल पड़ा।
अपूर्व ने उसे उठाया।
काँपते हाथों से जब वह ख़त खोला — उस पर लिखा था:
"अगर मुझे मारने के बाद भी तुम्हें सुकून नहीं मिला,
तो जान लो आग़ाज़ — रूहें कभी माफ़ नहीं करतीं।
मैं तुम्हारे साथ मरने नहीं आई थी…
लेकिन अब, मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगी — जब तक तुम खुद अपने सच को स्वीकार न कर लो।”**
अपूर्व का दिल जोर से धड़कने लगा।
उसकी साँसे तेज़ हो गईं।
किसी ने उसका कंधा छुआ — लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
दीवारों में एक पुराना साज़ बजने लगा… वही धुन जो अन्वेषा सुनती थी।
अपूर्व ने सीने पर हाथ रखा —
उसे ऐसा लगा जैसे कोई और उसकी धड़कनों को महसूस कर रहा हो।
"तुम्हें जवाब वहीं मिलेगा जहाँ उसकी जान गई थी..."
बूढ़े की आवाज़ फिर आई।
"पीपल के उस पेड़ के नीचे... जहां एक कसम टूटी थी।"
और इस आवाज के साथ ही वो बूढा वहां से गायब हो गया। अपूर्व बुरी तरह से डरा हुआ था लेकिन वो इस रहस्य की तह तक जाना चाहता था। वो तेज कदमों से उसी पीपल के पेड़ के पास पहुँच गया जहां अन्वेषा ने हनीमून से लौटते वक्त अपना माथा टेका था और फिर ये दास्तान शुरू हुई थी ।