Shrapit ek Prem Kahaani - 2 in Hindi Spiritual Stories by CHIRANJIT TEWARY books and stories PDF | श्रापित एक प्रेम कहानी - 2

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श्रापित एक प्रेम कहानी - 2


साधक गुस्से से कहता है ---


साधक :- तुने मेरी सारी मेहनत पर पानी फेरा , मेरी ब्रम्हचार्य की परीक्षा ली , पर जब मेरा ब्रह्मचार्य टूट ही गया है तो क्यो ना तुझे पुरी तरह से भोगा जाए ।


इतना बोलकर वो साधक अपने जेब से कुछ निकालता है और एक मंत्र पड़ता है ---



साधक :- > “ओम् मनोहराय नमः” 
       > “चन्द्रकान्ता तेजो भूते”




इतना बोलकर वो साधक उस परी के उपर भस्म फेंक देता है जिससे परी की ताकत कमजोर पड़ जाती है और वो साधक उस परी को पकड़कर उसे जमीन मे लिटा देता है ।



परी साधक से बचने के लिए बहोत कोशिस करती है पर वो साधक के सामने अब कमजोर थी ।
अब वो साधक परी के पास जाकर उसके सुंदर बदन को निहारने लगता है और परी के एक एक करके उसके सारे कपड़े उतार देता है ।



परी को इस अवस्था मे देखकर साधक औऱ बी ज्यादा बैचेन हो जाता है । 



वो ये भूल जाता है के परी को जिस काम के लिए बुलाया गया हो अगर उससे विपरीत कुछ किया गया तो उसको बहोत भंयकर परिणाम भुगतना पड़ेगा ।



पर साधक ये सब भुलकर उस परी को पागलो की तरह इसके बदन को तुमे जा रहा था ।




परी भी अब उस साधक के वश मे थी और वो भी उस साधक का पुरा साथ दिया और एक एक करके दोनो पुरी तरह से निर्वस्त्र हो चुके थे । परी के एक एक अंग को दैखकर वो साधक मदहोश हो चुका था ।




परी और साधक पुरी रात भर संभोग करने मे व्यस्त रहा और अब दोनो ही संतुष्ट हो चुका था ।





संभोग के बाद वो परी उठती है और अब उसका रुप भयानक हो जाता है वो परी. साधक से कहती है ---





परी :- आज तुने जो कृत्य मेरे साथ किया है उसके लिए मैं तुझे कभी माफ नही करुगां , तुने मुझसे मेरा सबकुछ छीन लिया , अब मैं वापस परी लोक किस मुह से जाउगी , मैं अपना प्राण यही त्याग दूगीं और अब तू जीवित रहेगा, पर कभी मुक्त नहीं होगा।”
जा मै तुझे श्राप देती हूँ , के जैसे मेरे शरीर को तुने नोचा है उसी प्रकार तेरे शरीर मे भी घांव होगें , उससे रक्त रहेगें , गलने लगेगें तेरा शरीर और तु अन्नत काल तक जायेगा और जब तक जीतेगा ये श्राप तुझे भोगना पड़ेगा ।



वो तात्रिंक डर जाता है और उसके शरीर पर अजीब सा होने लगता है तब वो तांत्रिक परी के पैरो मे गिरता है, उसकी आंखों से खून बहता है और कहता है --




तांत्रिक: > “नहीं… नहीं… मुझे श्राप मत दे…”






परी की आंखें अब आग की तरह लाल हो जाती हैं और कहती है ---




परी: > “तेरे शरीर में जख्म उभरेंगे, जो कभी नहीं भरेंगे… और हर अमावस्या को तू अपनी मृत्यु जीएगा।”





इतना बोलकर वो परी अपना प्राण त्याग देती है और वो साधक डर से सहम जाता है और वही पर बैठ जाता है ।




> "साधना अधूरी रही… और दुनिया में जन्मा एक नया श्राप — दक्षराज।"




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40 साल बाद — भानपुर गाँव, तूफ़ानी रात 



> “चार दशक बीत गए… पर श्राप की आग अब भी जल रही थी।”

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काली चादर ओड़े दक्षराज जो अपने शरीर के जख्मों को ढक कर रखा है, उसका चेहरा कठोर हो चुका था




> “वह वही साधक था… जो परी के श्राप ने उसे रोगी बना दिया था ।




सुबह के पाँच बज रहे थे । चारो और कोहरा ही कोहरा था और एक सन्नाटा छाया था । जिससे आगे का रास्ता कार चला रहे हैं नीलू को साफ साफ दिखई नहीं दे रहा था । नीलू धीरे धीरे कार को चला रहा था ।
 



सभी सुंदरवन को जा रहा था तभी कार रुकती है और सभी निचे उतरता है ---



उसके पास नीलू और दयाल खड़े हैं, हाथ में मशालें लिए 





दक्षराज: > “आज वही रात है… जब श्राप फिर से जागेगा।”
हमे जल्दी से अघोरी बाबा के पास जाना पड़ेगा । निलु तुम यही रुको हम दोनो बाबा से मिलकर आते है ।




निलू---- ठिक है मालिक , आप जाओ में आपका यही इंतजार करुंगा। 




नीलू इतना कह तो देता है पर उसको पता था के सुंदरवन में अभी भी देत्य आतें है। और पिछले दस सालो से जंगल में कुम्भन नाम का देत्य कैद है। जिसकी गर्जना आज भी गांव वालों को सुनाई देता है। नीलू का गला डर से सुख रहा था, पर उसके पास और कोई रास्ता भी नहीं था सिवाई अकेले यहां इंतेजार करने का ।




नीलू एक गहरी सांस लेता है और गाड़ी के अंदर चला जाता है और अपनी जेब से बिड़ी निकाल कर जलाने लगता है। दक्षराज और दयाल दोनो ही जंगल के अंदर जाने लगता है। कुछ दुर जाने के बाद जंगल अंदर से बहुत घना हो जाता है , जहा, पर सूरज की रोशनी बहोत मुश्किल से कही कही पर पहूँच रहा था ।



दूर आसमान में बिजली चमकती है



> कड़ाक्क्क्क्क…!




दयाल > “ मालिक अमावस्या लौट आई है , अब बस कुछ ही छन शेष है …”




जंगल में चारो और एक गहरी सन्नाटा और अँधेरा था। दोनो को वहां पर अपने पैरो के आवाज के अलावा और कुछ भी सुनाई नही दे रहा था । जंगल के अंदर मे काफी सुखी पत्ते पड़े थे जिस वजह से उस पत्तों पर कदम पड़ने से पैरो की आवाज और जौर जौर आने लगी थी ।




दक्षराज और दयाल को आगे बढ़ने में काफ़ी परेसानी हो रही थी। कुछ दुर और जाने पर वहां के चारों और बड़ जाता है । और अब कुछ सिकारी  जंगली जानवर के भयानक आवाज भी आने लगती है। जिससे किसी को भी डर लगना स्वाभाविक था। पर दक्षराज बिना किसी चिज के परवाह किए बिना ही आगे बढ़ते जा रहा था ।




दक्षराज की हालत बहोत खराब थी । अब हो लड़खड़ाने लगा था । पर फिर भी आगे बड़ रहा था । पर दयाल की हालत डर के मारे बहोत ही खराब थी । दयाल के मन में बार बार कुंभ्मन का ख्याल आ रहा था। वो यही सौच रहा था के  कहीं कुम्भन यहा ना आ जाए,




दयाल अपने मन ही मन सोचता है। काश यहा गाड़ी आने का रास्ता होता तो अब तक हम लोग अघोरी बाबा के पास पहुँच गए होते । इतना सोचते सोचते वो दो जंगल के काफी अंदर चला जाता है। जहां पर बिना रोशनी के अब आगे बड़ता नामुमकिन था।  



दयाल डर से कभी अपने दायें तो अभी बायें देखता, पर अंधेरा के अलावा कुछ  दिखाई नहीं दे रहा था , पर कही कही झाड़ियों मे से  जानवर के निकलने की आवाज आ रहा था  और टॉर्च की रोशनी से उन जानवरो की आंखे चमक रही थी ।




दक्षराज चुप चाप अपने कदम बढ़ाए जा रहा था । उऩ्हे देख कर ऐसा लग रहा था जैसे किसी बात की गहरी चिंता है, जिस वजह से वो जल्दी जल्दी अपने कदम अघोरी बाबा के गुफा की और बड़ा रहा था।




कुछ दूर जाने के बाद दयाल को जंगल के बिच एक रोशनी दिखाई पढ़ती है। दयाल झट से दक्षराज से कहता है। 



दयाल ---- मालिक लगता है हम लोग अघोरी बाबा के गुफा पहुँच गए।




उस जगह पर आते ही वहा के वातावरण ने उन दोनो की सारी थकान को मीटा दिया था। जो दक्षराज चल भी नही पा रहा थी वो भी बिलकुल ठिक हो चुका था । ऐसा लग रहा था जैसे वो थके ही ना हो। इस भयानक जंगल में इतनी शांति और सुखद अनुभव दयाल को आश्चर्य चकित कर रहा था। तभी दक्षराज दयाल से कहता है। 



दक्षराज --- दयाल तुम यही रुकना मैं गुफा में जाकर बाबा से मिल कर आता हूं ।



दयाल हां में अपना सर हिलाते हुए कहता हैं।



दयाल --- ठीक है मालिक आप जाओ में यही रुकता हूं। 



दक्षराज फिर से कहता है ।




दक्षराज ---- दयाल तुम यहां चुप चाप बेठना और यहां के किसी भी चिज को गलती से भी हाथ मत लगाना। नहीं तो याद है पिछली बार जब तुम यहां आए थे तुमने एक पेढ़ से फल तोड़ दिया था और उस पेड़ ने तुम्हें अपनी साखाओ में तब तक बांध कर रखा था जब तक के तुम उसका फल को वापस नहीं लौटा दिया था। इसलिए ध्यान रखना पिछली बार वाली गलती इस बार मत करना।




दयाल कहता है। 




दयाल ---- आप चिंता मत करो मालिक में वो गलती दोबारा नहीं दोहराउगां । 




" दयाल के इतना कहने के बाद दक्षराज वहा से गुफा की और जाने लगता है। गुफा के चारो और लताएँ झूल रही थी और उन लतायो में रंग बिरेंगे फुल खिले थे । दक्षराज गुफा के अंदर जाने लग जाता है। दक्षराज कुर्ता पजामा पहना हुआ था और ऊपर से काले रंग के एक मौटी चादर ओढ़ा हुआ था। गुफा के अंदर जाने के बाद दक्षराज को एक गेरुआ वस्त्र पहनने ध्यान में लीन एक बाबा दिखई देता है। जिनकी बड़ी बड़ी दाड़ी मुछे , तथा हाथ , पैर औऱ मुह में भस्म लगा था । "





और उनके दोनो और एक एक सेवक खड़े थे , ताकी बाबा के ध्यान में कोई बाधा ना आए । बाबा के पास एक त्रिसुल था और सामने  कुछ मानव खोपड़ियां।


To be continue. .......20