The Love That Was Incomplete - Part 4 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 4

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 4


“ये कैसा मजाक है अन्वेषा … ये सच नहीं हो सकता...” अपूर्व की आवाज़ काँप गई।
लेकिन अन्वेषा ने उसके गाल पर हाथ रखा। उसका स्पर्श गर्म था, लेकिन आंखें ठंडी।
“मैंने नासिर से वादा किया था... और अब मैं यहाँ हूँ। तुम भी आ गए... मगर मुझे अब भी इंतज़ार है... मेरी मौत का हिसाब बाकी है...”
एक ठंडी हवा का झोंका आया, और तभी पुराने पीपल के पास ज़मीन में कुछ चमका , एक छोटा सा लोहे का तावीज़, जो आधा मिट्टी में धँसा था।
अन्वेषा की निगाहें उस पर टिक गईं। उसने काँपते हाथों से उसे उठाया और अपनी मुट्ठी में कसकर बंद कर लिया।
“ये उसी ने दिया था... कसम खाई थी उसने...” वह बुदबुदाई।
अपूर्व अब कांप रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था कि सामने खड़ी यह औरत उसकी पत्नी है... या कोई और?
“अन्वेषा, लौट आओ... प्लीज़ लौट आओ...” उसने अन्वेषा को गले से लगा लिया।
लेकिन गले लगाते ही अन्वेषा की देह झटके से कांपी और उसने एक भयानक चीख मारी  जैसे आत्मा और शरीर के बीच कोई भीषण युद्ध हो रहा हो।
चीख इतनी तेज थी कि पास के पेड़ों से परिंदे उड़ गए और हवा में एक अजीब सी बिजली सी चमकी।
अपूर्व ने देखा , अन्वेषा की आंखों से खून की हल्की बूंदें गिरने लगी थीं।
और फिर...
वो अचानक शांत हो गई।
उसने अपूर्व की ओर देखा, उसकी आँखों में अब फिर से वही मासूम डर था।
“अपूर्व...? हम यहाँ क्यों आए थे...? मेरा सिर घूम रहा है...” वह बुदबुदाई।
अपूर्व ने उसे कसकर सीने से लगा लिया।
लेकिन उसके दिल में अब एक और डर समा चुका था।
"अन्वेषा… क्या तुम ठीक हो?"
अपूर्व ने अन्वेषा से पूछा ।
अन्वेषा ने धीमे से उसकी ओर देखा और कहा - "क्या तुम्हें भी वो आवाज़ें सुनाई देती हैं, अपूर्व?"


"कैसी आवाज़ें?"
 अपूर्व का गला सूख गया।
"जैसे किसी ने वादा किया हो…
और फिर उसे तोड़कर
किसी को ज़िंदा दफना दिया हो…"
अपूर्व ठिठक गया।
अगले ही पल अन्वेषा ज़ोर से चीखी —
"उसने कहा था!"
"वो लौटेगा!"
उसका शरीर कांप रहा था, जैसे किसी और आत्मा ने उसमें घर कर लिया हो।
अपूर्व ने उसे कसकर पकड़ लिया —
 "अन्वेषा! शांत हो जाओ… मैं हूं, अपूर्व।"
वो अचानक चुप हो गई। कुछ पलों की खामोशी के बाद उसने अपूर्व की आंखों में देखा…
“क्या हुआ, अपूर्व?”
उसने मासूमियत से पूछा।
“हम यहां क्यों आए हैं? मुझे ठंड लग रही है…”
अपूर्व की बाँहों में काँपती अन्वेषा अब शांत थी, लेकिन अपूर्व का दिल तूफ़ान से भरा हुआ था। वह जान चुका था कि ये कोई कहीं गहराई में छिपा अतीत है , जो अब उनकी वर्तमान ज़िन्दगी में दरारें डालने लगा है।
वो अन्वेषा को लेकर हवेली में लौट आया था ….हवाओं में एक अजीब-सी सरसराहट थी। जैसे रात खुद कुछ कहना चाहती हो। चाँद की रौशनी उस पुराने हवेली के खिड़कियों से झाँक रही थी, और हर परछाईं किसी रहस्य को जन्म दे रही थी। अपूर्व, दीवार से टिके बैठा था, और उसके सामने ज़मीन पर अन्वेषा बेसुध पड़ी थी। लेकिन वह अब अन्वेषा नहीं रही थी। उसकी आँखें खुलीं तो उनमें रुखसाना की विरह भरी वेदना थी—और साथ ही आगाज़ के लिए गुस्सा।
"मुझे नासीर चाहिए... मेरा नासीर कहाँ है?" उसकी आवाज़ कांपती नहीं थी, पर उसमें ऐसी गूँज थी जो सीधे आत्मा को हिला दे।
अपूर्व का गला सूख गया। "अन्वेषा... प्लीज़... ये तुम फिर से ये क्या कह रही हो?"
"तू आगाज़ है... तूने ही उसे मुझसे छीना था," वह फुफकारती हुई उठ बैठी, "अब वो लौट आया है... लेकिन तुझसे बदला लिए बिना मैं चैन नहीं पाऊँगी।"
अपूर्व ने उसे थामने की कोशिश की, लेकिन उसके छूते ही अन्वेषा चीख पड़ी और पीछे हट गई।
तभी अचानक हवेली की बिजली चली गई। एक झटका, एक सन्नाटा। और फिर, सीढ़ियों से किसी के उतरने की धीमी-धीमी आवाज़ें।

हवेली की दीवारों पर टंगी पुरानी तस्वीरें अचानक हिलने लगीं। हवा इतनी तेज़ थी कि पर्दे दीवारों से चिपकने लगे। अन्वेषा के चेहरे पर अब शांति थी... लेकिन डरावनी। वो जैसे समाधि में हो। आँखें बंद, होंठ हिल रहे थे, मानो कोई पुरानी ग़ज़ल दोहरा रही हो।
अपूर्व ने मोबाइल की टॉर्च जलाकर पूरे घर में देखा। तभी एक परछाईं सीढ़ियों के नीचे से निकलती हुई दिखी—एक लंबा, सफेद कपड़ों में लिपटा इंसान... या कोई आत्मा?
उसके कानों में धीमी सी आवाज़ पड़ी — "रुखसाना... मैं लौट आया हूँ।"
अपूर्व की साँस थम गई।

तभी अन्वेषा उठी, और सीढ़ियों की ओर चल पड़ी। उसके कदमों की आवाज़ मानो ज़मीन में गूंज रही थी। अपूर्व उसके पीछे भागा, "अन्वेषा! वापस आओ!"
लेकिन उसने पलटकर कहा, "अब मुझे रोकोगे, आगाज़? पहले की तरह?"

सीढ़ियों के नीचे कमरे का दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुला। वहाँ एक दीया जल रहा था... और दीए के पास वही आकृति खड़ी थी — धुंधले चेहरे वाला, शांत और उदास — नासीर।
अन्वेषा—या कहें रुखसाना—धीरे-धीरे उसके पास गई। "तुम... सच में लौट आए हो?"
नासीर की आकृति ने धीरे से सिर हिलाया। "तेरी मोहब्बत मुझे बाँध लाई। लेकिन अब तू आगाज़ के साथ क्यों है?"
अन्वेषा एक पल को काँपी, फिर पीछे मुड़ी और अपूर्व की ओर देखा। उसकी आँखों में वो मोहब्बत नहीं थी जो अन्वेषा रखती थी, वो प्रश्न था जो रुखसाना को जलाता रहा था।
"क्यों किया तूने ऐसा, आगाज़? तुझसे निकाह तय था मेरा, फिर भी तूने मेरे नासीर को..."
"नहीं!" अपूर्व चीखा, "मैं... मैं नहीं जानता कि उस ज़माने में क्या हुआ... मैं कोई आगाज़ नहीं..."
तभी नासीर ने कहा, "ये वही आत्मा है। वही जो मुझे ज़िंदा दफ़नाने आया था।"

हवेली की दीवारें अब कांप रही थीं।
तहख़ाने की एक दीवार से खून की धारा बह निकली। वो पुराना सच फूट पड़ा था।
एक पुराना आईना दीवार से गिरा और उसके पीछे छुपा एक पुराना पत्र मिला। अपूर्व ने कांपते हाथों से उसे उठाया।
"रुखसाना, अगर तू यह पढ़ रही है, तो जान ले, मैं तुझे बचाने आया था... नासीर से नहीं, उस श्राप से जो तेरी अम्मी ने दिया था हमारी ख़ानदानी रिवायतों को तोड़ने के लिए। मैं तुझसे नफ़रत नहीं करता, मैं तुझसे मुक्ति चाहता था। - आगाज़"
अपूर्व के हाथ काँप उठे। "तो क्या... आगाज़ भी निर्दोष था?"

लेकिन इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, अन्वेषा ज़ोर से चीखी और ज़मीन पर गिर गई। उसकी कलाई पर अब एक नाम उभर रहा था — "नासीर"
नासीर की आकृति ज़ोर से चीखी, "रुखसाना... ये तुम्हारा बदला नहीं, तुम्हारी मुक्ति है। अब छोड़ दो इस शरीर को..."
लेकिन अन्वेषा की आँखें लाल हो चुकी थीं। उसने गहरी सांस ली और फुसफुसाई — "अब बहुत देर हो चुकी है।"

एक ज़ोरदार बिजली गिरी और हवेली की छत से एक पुरानी तलवार नीचे गिरी।
अपूर्व की ओर देखते हुए अन्वेषा बोली, "अब अगला शिकार... आगाज़ खुद होगा।"

पीछे से एक आवाज़ आई —
"उससे दूर रहो... आगाज़!"
अपूर्व पलटा, तो देखा — दरवाज़े पर एक और औरत खड़ी थी। चेहरा झुलसा हुआ, आँखें बुझी हुई... लेकिन वो जिंदा थी।
"मैं रुखसाना की अम्मी हूँ... और मेरी बेटी इस शरीर में कैद है।"

क्या अन्वेषा का शरीर दो आत्माओं की लड़ाई का मैदान बन चुका है?
क्या अपूर्व वाकई आगाज़ था — या वह सिर्फ एक मोहरा है एक बड़े, अंधेरे खेल में?
और रुखसाना की अम्मी — जो अब सामने आई है — उसकी भूमिका क्या है इस पूरी दास्तान में?