Kurbaan Hua - Chapter 32 in Hindi Love Stories by Sunita books and stories PDF | Kurbaan Hua - Chapter 32

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Kurbaan Hua - Chapter 32

बाकी बदमाश गुस्से में आ गए और एक साथ उस पर टूट पड़े।

पहला बदमाश तेजी से लोहे की रॉड लेकर हर्षवर्धन पर वार करने दौड़ा, लेकिन हर्षवर्धन ने झुककर उसकी रॉड को एक हाथ से पकड़ लिया और जोर से खींचकर उसे घुटने पर दे मारा। बदमाश की हड्डी चटकने की आवाज़ पूरे कमरे में गूंज उठी और वह दर्द से चीख पड़ा।

दूसरा बदमाश पीछे से आकर हर्षवर्धन के सिर पर वार करने वाला था, लेकिन जैसे ही उसने हाथ उठाया, हर्षवर्धन ने बिजली की गति से घूमकर उसका हाथ पकड़ लिया और ज़ोर से मरोड़ दिया। बदमाश की कलाई टूट गई और वह दर्द से चिल्ला उठा।

तीसरा बदमाश चाकू निकालकर हर्षवर्धन की ओर लपका, लेकिन हर्षवर्धन ने उसका हाथ पकड़कर उसे ज़मीन पर पटक दिया। चाकू दूर जा गिरा। हर्षवर्धन ने उठकर उसके चेहरे पर घूंसा मारा, जिससे उसका होंठ फट गया और खून बहने लगा।

अब बचा चौथा बदमाश। वह डरा हुआ पीछे हटने लगा, लेकिन हर्षवर्धन ने तेज़ी से जाकर उसे कॉलर से पकड़ लिया और दीवार से ज़ोर से टकरा दिया। उसकी आँखें डर से फैल गईं।

"अब तुझे भी वही हाल करना है, या खुद चलकर जेल में जाएगा?" हर्षवर्धन गरजा।

डरे हुए बदमाश ने कांपते हुए कहा, "साहब, माफ कर दो! आगे से ऐसा नहीं करेंगे!"

हर्षवर्धन ने उसे धक्का दिया और सभी पुलिसकर्मियों को आदेश दिया, "इन सबको लॉकअप में डाल दो। इनकी पूरी हिस्ट्री निकालो, देखना कितने केस दर्ज हैं इनपर!"

पुलिसकर्मी तुरंत हरकत में आ गए। बदमाशों को पकड़कर घसीटते हुए हवालात में डाल दिया गया।

लड़की, जो अब तक सहमी हुई थी, उसने राहत की सांस ली। उसकी आँखों में कृतज्ञता थी। उसने धीरे से कहा, "धन्यवाद, साहब। अगर आप ना होते तो पता नहीं मेरा क्या होता।"

हर्षवर्धन ने उसके सिर पर हाथ रखा और कहा, "अब तुम सुरक्षित हो। तुम्हें किसी से डरने की जरूरत नहीं।"

फिर उसने अपने एक कॉन्स्टेबल को आदेश दिया, "इसका मेडिकल करवाओ और घर तक छोड़कर आओ।"

लड़की की आँखों में आँसू थे, लेकिन अब ये आँसू डर के नहीं, राहत के थे। हर्षवर्धन ने उसकी हिम्मत बढ़ाने के लिए मुस्कुराया और कहा, "अब अगर कोई भी तुम्हें परेशान करे, तो डरना मत... सीधे पुलिस स्टेशन आना।"

लड़की ने सिर हिलाया और जाते-जाते हर्षवर्धन की ओर एक बार फिर देखा।

पुलिस स्टेशन में अब सन्नाटा था, लेकिन एक बात साफ हो चुकी थी—खाकी का वजूद अब भी जिंदा था, और जब तक ऐसे बहादुर अफसर थे, तब तक अपराधियों की जगह सिर्फ सलाखों के पीछे थी।

हर्षवर्धन ठकराल अपनी कुर्सी पर बैठा, रिपोर्ट्स को देखते हुए गहरी सोच में डूबा था। पुलिस स्टेशन में एक अजीब-सा सन्नाटा पसरा था। तभी उसके फोन की घंटी बजी। उसने फोन उठाया।

"हैलो?" उसने सीधे कहा।

दूसरी तरफ से आवाज आई—दबी हुई, घबराई हुई, मगर किसी बड़े राज से भरी हुई।

"साहब... आप जिसे पकड़कर अंदर डाल रहे हैं, असली खेल उससे कहीं बड़ा है। यहाँ सिर्फ मोहरे फंस रहे हैं, मगर असली खिलाड़ी अब भी खुलेआम घूम रहे हैं। अगर सच में शहर को साफ करना चाहते हैं, तो पुरानी फैक्ट्री के पास जाओ... रात होते ही वहाँ कुछ बड़ा होने वाला है।"

हर्षवर्धन चौकन्ना हो गया। "तुम कौन हो?" उसने सख्त लहजे में पूछा।

"इतना ही काफी है कि मैं चाहता हूँ, सच सामने आए... लेकिन अगर मेरी आवाज किसी और ने सुनी, तो शायद मैं कल तक ना रहूँ।"

फोन कट चुका था।

हर्षवर्धन ने तुरंत अपने सबसे भरोसेमंद इंस्पेक्टर सतीश को बुलाया।

"सतीश, पुरानी फैक्ट्री के बारे में क्या जानते हो?"

"सर, वो तो कई सालों से बंद पड़ी है, लेकिन कुछ लोगों की आवाजाही रहती है। कई बार हमें वहाँ गैरकानूनी गतिविधियों की खबर मिली, पर जब तक हम पहुँचते हैं, सब साफ हो चुका होता है।"

हर्षवर्धन ने एक गहरी सांस ली। "तो इस बार हमें पहले से तैयार रहना होगा। पूरी टीम को अलर्ट कर दो। हम आज रात वहाँ छापा मारेंगे।"

सतीश ने सर हिलाया और तेजी से बाहर निकला।

हर्षवर्धन की नजर अब उस बंद होते फोन स्क्रीन पर थी। उसे अहसास हो चुका था कि ये मामला जितना दिख रहा था, उससे कहीं ज्यादा पेचीदा था। सवाल यह था—क्या वो सही वक्त पर सही जगह पहुँच पाएगा, या फिर शहर में कोई बड़ा खेल खेला जा रहा था, जिसकी एक झलक उसे अभी-अभी मिली थी?