Antarnihit 24 in Hindi Classic Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | अन्तर्निहित - 24

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अन्तर्निहित - 24

 [24]

“डीएनए परीक्षण आरंभ हो चुका है। आठ दिनों में रिपोर्ट या जाएगा।”

“तब तक क्या करने का सोचा है, शैल जी?”

“हमें इतने समय की प्रतीक्षा नहीं करनी है।”

“क्यों?”

“हमें प्रत्येक क्षण का उपयोग करना होगा। कुछ भिन्न रूप से सोचना होगा।”

“यदि आठ दस दिनों तक डीएनए रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर लेते तो?”

“उसका कोई अर्थ नहीं है।”

“क्यों नहीं है?”

“डीएनए रिपोर्ट से मृतक की आनुवंशिकता का ज्ञान मिल जाएगा किन्तु उससे उसकी मृत्यु का कारण तथा उसके मारक के विषय में कोई ज्ञान थोड़े ही प्राप्त होगा?”

“यह ‘मारक’ का अर्थ क्या है?”

“हत्यारा।”

“इतना तो ज्ञात हो जाएगा कि यह व्यक्ति किस देश कि नागरिक है।”

“डीएनए रिपोर्ट किसी व्यक्ति का पासपोर्ट नहीं है, साराजी।”

“किन्तु।”

”यह विश्व अब सीमाओं में संकुचित नहीं रहा, अत्यंत विस्तृत हो गया है। डीएनए से किसी की नागरिकता ज्ञात नहीं हो सकती।”

“मैं आपका तात्पर्य नहीं समाज सकी।”

“तो स्पष्ट शब्दों में कहना पड़ेगा, हैं न?”

प्रतिक्रिया में सारा ने स्मित दी। 

“आप येला को मिल चुकी हैं। जन्म से वह जर्मन है। उसका डीएनए यूरोपिय आनुवंशिय प्रतीत होता है।”

“यही तो।”

“धैर्य रखें साराजी। बात अभी अधूरी है।” शैल क्षणभर रुका, सारा को देखा। वहाँ उत्सुकता और जिज्ञासा के भाव थे। 

“येला कई वर्षों से भारत में रह रही है। अब वह भारतीय नागरिक है। यदि उसके डीएनए के आधार पर उसकी नागरिकता ढूँढेंगे तो भ्रमणा में फंस जाएंगे।”

“ओह, यह बात है। मैं समझ गई।” 

कुछ क्षण मौन ही व्यतीत हो गए। 

विजेंदर ने कक्ष में प्रवेश करते हुए पूछा, “भोजन यहीं भेज दूँ या चलते हो उपाहार गृह में?”

“सारा जी, आप विजेंदर के साथ जाकर भोजन कर लें।”

“और आप?”

“मैं यहीं भोजन करूंगा। मेरा भिजवा देना।”

“चलो, साराजी चलें?”

“नहीं, मैं भी यहीं शैल जी के साथ ही भोजन करूंगी।”

“जैसी आपकी इच्छा।” कहते हुए विजेंदर चल गया। भोजन पूर्ण होने तक कक्ष में मौन बना रहा। 

“आगे क्या योजना है, शैल जी?”

“कुछ भी सूझ नहीं रहा है कि क्या करें? कैसे आगे बढ़ें?”

“कुछ तो करना पड़ेगा। क्यों कि ...।”

“क्यों कि?”

“प्रतिदिन हमें इस विषय की प्रगति पर निवेदन देना होता है।”

“इस प्रकार स्मरण दिलाकर भयभीत न करें। आप ही कुछ मार्ग दिखाएं, सारा जी।”

“मेरा आशय तो आपको विचार करने के लिए प्रेरित करने का था। तथापि मैं मेरे शब्दों के लिए क्षमा चाहती हूँ।” सारा ने हाथ जोड़ दिए। 

“नहीं, नहीं। आप न तो हाथ जोड़िए, न ही क्षमा मांगिए। आप वरिष्ठ हैं; इस क्षेत्र में भी, आयु में भी।”

शैल के शब्दों को सुनते ही सारा के नयनों से अनायास ही जल बहने लगा। शैल को उन अश्रु जल का कारण समझ नहीं आया। वह दुविधा में उसे देखता रहा। सारा ने स्वयं को संभाला, स्वस्थ हुई, अश्रु को पोंछ दिया। थोड़े घूंट पानी पिया, आँखें बंद की, क्षण में ही खोल दी। शैल अभी भी सारा की चेष्टा को समजने का प्रयास करता रहा। 

“कुछ नहीं शैल जी, बस यूं ही।” क्षण भर रुकी सारा, “वास्तव में मुझे इतने अछे व्यवहार का अभ्यास नहीं है। आपके व्यवहार से मैं भावुक हो गई।”

“अब इसका अभ्यास कर लो, आप भारत में हैं।”

“जी, मैं अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखने का प्रयास करूंगी।”

“एक और प्रयास भी करना होगा आपको।”

“मैं सब करूंगी, कहो क्या करना होगा?”

“आप मुझे केवल शैल कहकर पुकारेंगे। और आप नहीं तुम कहकर बात करोगे। करोगे न?”

सारा के मुख पर जो भाव थे वह शब्दों से अतीत थे। 

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फिरोजपुर से लौटते ही वत्सर सीधे अपने मंदिर की तरफ गया। मंदिर से आता कोलाहल इसके कानों में पड़ने लगा। 

‘इतना कोलाहल? मंदिर में क्या हुआ होगा? कहीं कोई अनिष्ट तो नहीं हुआ होगा?’ विचार करते करते वह मंदिर पहुँच गया। वहाँ उसने भीड़ देखि। 

‘यह सब मेरे गाँव के लोग तो नहीं हैं। कौन है ये लोग? कहाँ से आए हैं? क्यों आए हैं? मंदिर तो सुरक्षित होगा न?’ अनेक विचारों से घिर गया वत्सर। क्षणभर के लिए विचलित हो गया। मन में श्री कृष्ण का स्मरण करने लगा। 

‘श्री कृष्ण शरणं मम, श्री कृष्ण शरणं मम, श्री कृष्ण शरणं मम।’

उसका विचलित मन स्थिर होने लगा। पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ वह मंदिर के प्रांगण में आ पहुँचा। 

‘यह सब तो पत्रकार प्रतीत होते हैं। अनेक उलटते सीधे प्रश्न करेंगे, जो नहीं है उसे भी बड़ी बड़ी बातें बनाकर समाचार माध्यमों में प्रसारित कर देंगे। मुझे इन लोगों से बचना होगा, सावध रहना होगा।’

वत्सर को आते देख सभी ने उसकी तरफ दौड़ लगाई। क्षणभर में अनेक माइक वत्सर के सामने प्रस्तुत हो गए। सभी एक साथ  प्रश्न पर प्रश्न करने लगे। वत्सर ने कोई उत्तर नहीं दिया। 

“वत्सर, आप हमारे प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं दे रहे?”

“उत्तर दो।”

“सारा संसार आपसे सत्य जानना चाहता है।”

वत्सर ने दाहिना हाथ उठाकर सबको शांत रहने का आग्रह किया। शांत हो गए सब, वत्सर के शब्दों की प्रतीक्षा करने लगे। 

“इस श्री कृष्ण मंदिर में आप सभी का स्वागत है। धैर्य रखें। मुझे बैठने दीजिए, आप सभी भी बैठ जाइए। कुछ चाय पान, उपाहार आदि ग्रहण कर लें। पश्चात पूरा समय लेकर हम शांति से सारी बातें करेंगे।”

“नहीं, हमें अभी आपसे उत्तर चाहिए।” भीड़ से एकसाथ अनेक स्वर उठे। 

वत्सर ने स्मित के साथ कहा, “थोड़ा धैर्य रखें। मैं अभी अभी तो इतनी लंबी यात्रा से आया हूँ।”

“तो क्या हुआ? हम आपसे कुछ प्रश्न करेंगे। पश्चात आप विश्राम कर सकते हो। अब हमारे प्रश्नों के उत्तर दें।”

“देखिए, आप मुझे ऐसे न तो प्रश्न कर सकते हो न ही ऐसा व्यवहार कर सकते हो।”

“हम पत्रकार हैं, हमें यह अधिकार है।”

“आप हम पत्रकारों का अपमान कर रहे हो।”

“आप को इतना तो स्मरण होगा ही कि आप मेरे मंदिर में हो, बिना बुलाए आए हो। अनधिकृत प्रवेश कर चुके हो। किसी के अंगत परिसर में घुसना, अतिक्रमण करना, दुर्व्यवहार करना अपराध है। इस अपराध का दंड क्या है वह तो आप सब जानते ही होंगे। आप तो पत्रकार हैं। हैं न?”

वत्सर की बात सुनकर पत्रकार भड़क गए किन्तु वत्सर से आगे कुछ भी कहने का कोई साहस नहीं कर पाए। एक एक कर सब वहाँ से चले गए। जाते जाते धमकी भी देते गए, “हमारा अपमान आप को महंगा पड़ेगा।”